लोकसभा चुनाव में बिहार में कांग्रेस को कोई सफलता मिली ही नहीं थी। उसके 40 में मात्र दो उम्मीदवार ही जीते थे। उसे पड़े मत प्रतिशत अवश्य बढ़े थे। वे 6 फीसदी से बढ़कर 16 फीसदी तक पहुंच गए थे। कांग्रेस को मिले कुल मतों में वृद्धि इसलिए नहीं हुई थी, क्योंकि उसके पक्ष में एकाएक लोग गोलबंद होने लगे थे। दरअसल 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने मात्र 4 सीटों पर ही उम्मीदवार खड़े किए थे। 2010 में 40 उम्मीदवार खड़ा करने के कारण उसके मत प्रतिशत बढ़े थे। कारण चाहे जो भी हो, मत प्रतिशत में आई वृद्धि के कारण भी विधानसभा के चुनाव को लेकर पार्टी के केन्द्रीय और राज्य स्तर के नेताओं में उम्मीदें जगी थीं कि पार्टी वहां भी बेहतर प्रदर्शन कर सकती है और 243 सीटों पर उम्मीदवार देकर लगभग 50 सीटें जीत सकती हैं।

बिहार में कांग्रेस का राजनैतिक आधार पारंपरिक रूप से मुस्लिम, अगड़ी जातियां और दलित रहे हैं। गैर कृषक पिछड़ा वर्ग भी ज्यादातर कांग्रेस के साथ ही हुआ करता था। मन्दिर मस्जिद विवाद ने मुसलमानों को कांग्रेस से अलग कर दिया था। पिछड़ा वर्ग आंदोलन के कारण गैर कृषक पिछड़ा वर्ग भी कांग्रेस से अलग हो गए थे। आरक्षण के खिलाफ होने वाले विरोध प्रदर्शनो के कारण दलित भी कांग्रेस छोड़कर कांग्रेस की विराधी रही कृषक जातियों के साथ हो लिए। भाजपा के विरोध के नाम पर लालू के साथ मिलकर सत्ता की भागीदारी करने के कारण अगड़े भी कांग्रेस का साथ त्याग चुके थे।

इस तरह कांग्रेस के पास कोई जनाधार बचा ही नहीं था। बिना किसी पारिभाषित जनाधार के लोकसभा में 16 फीसदी वोट लाना कांग्रेस नेताओं के लिए कोई मामूली बात नहीं लग रही थी। सत्ता से बाहर होने के कारण मुसलमान लालू का साथ छोड़ रहे थे। सत्ता मे मन माफिक भागीदारी नहीं मिलने के कारण अगड़ी जातियों के लोग नीतीश और भाजपा का साथ छोड़ता दिखाई दे रहे थे। कांग्रेस को लगा कि इन दोनों समुदायों को जोड़कर बिहार विधानसभा में ज्यादा सीटें हासिल की जा सकती हैं। सत्ता में आने का तो उसने नहीं सोचा था, लेकिन उसे लग रहा था कि वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर सकती है और विधानसभा में किसी के बहुमत आने की संभावना को समाप्त कर सकती है।

लेकिन विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के पहले की बिहार में कांग्रेस अपने को चारो खाने चित्त देख रही है। उसके प्रदेश अध्यक्ष अपनी पार्टी की दुर्गति की आशंका से अपने बचाव में अभी जुट गए हैं और कह रहे हैं कि पार्टी की हार के लिए कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि सभी जिम्मेदार माना जाएगा। उन्हें डर लग रहा है कि हार का ठीकरा कहीं उन्हीं के सिर पर न फोड़ दिया जाए, इसलिए वे अपने बचाव में अभी से बयानबाजी में लगे हुए हैं। पहले भी टिकट वितरण को गलत बताकर वे टिकट बांटने वाले नेताओं को कटघरे में खड़ा कर चुके हैं।

बिहार के कांग्रेस अध्यक्ष का बयान अनायास नहीं है। वे चुनावी राजनीति को जमीन पर खड़ा होकर देख रहे हैं। कुछ महीने पहले ही वे एक उपचुनाव में विजयी हुए थे। उन्हें पता है कि किन लोगों ने उनको मत दिया था। उस समय वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी नहीं थे। अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी के टिकटों का जिस तरह से बटवारा हुआ, उसके कारण अब उनकी जीत के ही लाले पड़ गए हैं। टिकट बंटवारे को गलत बताकर वे अपने विधानसभा क्षेत्रों के नाराज उन तबको को वे खुश करने की कोशिश कर रहे थे, जिनके समर्थन से उन्होनंे उपचुनाव जीता था। वे अपना चुनाव जीतेंगे या नहीं, यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन कांग्रेस बिहार में हार रही है और उसके पास उत्सव के लिए कोई कारण नहीं होगा, इस बात को वे अभी से समझ रहे हैं।

दरअसल कांग्रेस ने टिकट वितरण में भारी गड़बड़ियां कर दी हैं। मुसलमानों और अगड़ी जातियों का वोट पाने के लिए उन्होंने भारी संख्या में उन्हे टिकट दे डाले। वह निर्णय अपने आपमें शायद गलत भी नहीं था, लेकिन पिछड़े वर्गो के लोगों को मिले लगभग 60 टिकटों में उन्होने उन्हीं 3 कृषक जातियों के उम्मीदवारों को भारी संख्या में टिकट दे डाले जो हमेशा से कांग्रेस के खिलाफ रहे हैं और जिनका वोट आज भी कांग्रेस को नहीं मिल सकता। उनमें एक जाति तो पूरी तरह लालू के साथ है, जबकि दो अन्य कृषक जातियां नीतीश के साथ। गैर कृषक पिछड़ी जातियों को ही कांग्रेस अपनी ओर खींच सकती थीं, लेकिन उनके लोगों को बहुत कम टिकट मिले। यदि लोकसभा चुनाव के बाद हुए 18 उपचुनावो के नतीजों पर नजर दोड़ाएं तो उनमें कृषक पिछड़ी जातियों की हार दिखाई देती है। कांग्रेस ने उस नतीजों से कोई सबक नहीं लिया। उसने तो 35 यादवों को ही टिकट दे दिए, जो लालू के साथ हैं। एक दो छोड़कर उनमें सब हारेंगे। कांग्रेस ने 47 मुसलमानों को टिकट दिए हैं। उन उम्मीदवारांे के खिलाफ जहां लालू और पासवान के मुस्लिम उम्मीदवार होंगे, वहां मुस्लिम वोट कांग्रेस को शायद ही मिले। और जहां मुस्लिम वोट कांग्रेस को मिलेंगे भी तो किसी और समुदाय से मिले वोटों के अभाव में उनमें से भी अधिकांश की हार हो जाएगी। कांग्रेस अगड़ी जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद होने की उम्मीद कर रही हैं, लेकिन उनकी पहली प्राथमिकता ज्यादा से ज्यादा अपने प्रतिनिधि को चुनकर भेजने की है। इसलिए उनके मतों का भारी बंटवारा हो रहा है।

यही कारण है कि बिहार कांग्रेस में अभी से बेचैनी है। एक समय वह 50 सीटें हासिल करने का ख्वाब देख रही थी। फिर वह 30 अथवा 35 के बीच में आई। अब वह दुआ कर रही हैं कि सीटें किसी तरह 20 के पार हो जाए। लेकिन उतनी सीटें भी मिल पाएंगी, इसे लेकर कांग्रेस के अनेक नेता सशंकित है। लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद कांग्रेस ने बिहार के लिए जो टीम चुन रखी थी, वह सही ढंग से काम कर रही थी। जगदीश टाइटतर वहां के लोगों से मिल मिल कर वहां की राजनीति को समझने की कोशिश कर रहे थे। वे बहुत हद तक बिहार की राजनीति को समझ भी गए थे। अनिल कुमार शर्मा एक करिश्माई नेता के रूप में उभर रहे थे। पार्टी को उन्होंने बहुत ही सक्रिय कर रखा था और खराब छवि के कांग्रेसियों को तरजीह नहीं दे रहे थे। गिरीश संघी को पीआरओ बनाकर कांग्रेस बिहार के गैर कृषक पिछड़े वर्गों को भी पार्टी से जोड़ रहे थे। प्रदेश कांग्रेस के नेताओं के दबाव में आकर कांग्रेस आलाकमान ने इन तीनों को हटा दिया। आज यदि कांग्रेस नतीजा आने के पहले की अपने को पराजित मान रही है, तो इसका एक बड़ा कारण यह भी है। (संवाद)