दूसरा बड़ा निर्णय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चौहान को वहां के मुख्यमंत्री के पद से हटाया जाना था। आदर्श निवास सोसाइटी में उनके कई रिश्तेदारों के नाम फ्लैट होने के बात सामने आने के बाद उनके खिलाफ विपक्ष ने मुहिम चला रखी थी। श्री चौहान के पास सफाई में ज्यादा कुछ कहने को भी नहीं था। भ्रष्टाचार का कोई मामला किसी मुख्यमंत्री के खिलाफ सामने आने के बाद शायद कांग्रेस ने इतनी तेजी से कभी कार्रवाई नहीं की होगी। श्री चौहान की तो छुट्टी और भी पहले हो जाती, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा और उनके मुंबई में स्वागत कार्यक्रमों के कारण वे कुछ अतिरिक्त दिनों तक अपने पद पर बने रहे।
तीसरा निर्णय, हालांकि वह बहुत छोटा है, राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को कांग्रेस के संसदीय सचिव के पद से हटाने का है। उन्हें उस पद से हटाने की कोई मांग नहीं कर रहा था, लेकिन फिर भी उन्हें उस पद से हटाकर कांग्रेस ने यह संकेत दिया है कि राष्ट्रमंडल खेलों में हुए भ्रष्टाचार को लेकर वह सजग है और उसे अपनी छवि की चिंता है। हालांकि राष्ट्रमंडल खेलों में हुए भ्रष्टाचार के श्री सुरेश एक छोटे खिलाड़ी हैं। फिर भी एक संकेत के रूप में उनके खिलाफ हुई कार्रवाई को देखा जा सकता है।
केन्द्र सरकार और कांग्रेस की तरफ से की गई इन कार्रवाइयों के बावजूद विपक्ष शांत नहीं हो रहा है। वह संयुैत संसदीय समिति ( जेपीसी) से भ्रष्टाचार के सारे मामलों की जांच की मांग कर रहा है। लेकिन सरकार इस पर आगे बढ़ने को तैयार नहीं दिखाई दे रही है। सरकार संसद में इस पर चर्चा कराने को तो तैयार है, पर संसदीय जांच के लिए तैयार नहीं है। सवाल उठता है कि सरकार संसदीय जांच से कतरा क्यों रही है? इसके पहले सवाल यह भी है कि अनेक जांच एजेंसियां इन मामलों की जांच पहले से ही कर रही हैं, तो फिर विपक्ष संसदीय जांच की मांग पर क्यों जोर दे रहा है?
संसदीय जांच पर जोर देने के पीछे राजनीति ही नहीं, बल्कि यह विश्वास भी काम कर रहा है कि सीबीआई कोई निष्पक्ष संस्था नहीं है, जिसकी जांच पर विश्वास किया जा सके। सीबीआई का केन्द्र सरकार द्वारा दुरुपयोग किए जाने के दर्जनों मामले सामने आ चुके हैं। लालू यादव के खिलाफ चारा घोटाले के मामले में उच्च न्यायालय में अपील में नहीं जाने का मामला हो अथवा मुलायमए मायावती और शिबू सोरेन के विरोध को शांत करने का मामला हो, सीबीआई के दुरुपयोग का मामला देश के सामने आया है। इसलिए इस जांच एजेंसी की जांच पर अब लोगांें का भरोसा उठता जा रहा है।
केन्द्रीय सतर्कता आयोग भी भ्रष्टाचार के कुछ मामलों की जांच कर रहा है। एक अदालती फैसले के बाद इस आयोग को भी सीबीआई जांच पर नजर रखने का अध्किार दे दिया गया है, लेकिन इस आयोग को लेकर भी भाजपा सशंकित है। कुछ दिन पहले इस आयोग के आयुक्त की नियुक्ति की गई थी। भाजपा ने उस नियुक्ति का विरोध किया था और कहा था कि जिस व्यैिक्त की भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाली इस समिति का मुखिया बनाया गया है, उस व्यक्ति का अतीत भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं रहा है। भाजपा के नेताओं ने सतर्कता आयोग के आयुक्त के शपथ ग्रहण समारोह का बहिष्कार तक किया था।
जाहिर है विपक्ष को न तो सीबीआई पर भरोसा है और न ही केन्द्रीय सतर्कता आयोग पर और न ही आयकर विभाग पर। वह चाहता है कि एक संयुक्त संसदीय समिति इसकी जांच करे। जेपीसी में सभी पार्टियों के सांसद होते हैं और उनमें पार्टियों का प्रतिनिधित्व संसद में उनकी ताकत के अनुपात में होता है। यानी जिस पार्टी के ज्यादा सांसद संसद में हैं संसदीय समिति में उनके सदस्यों की संख्या भी ज्यादा होगी।
पहले भी अनेक मामलों में संसदीय जांच हो चुकी है। हर्षद मेहता के नाम से हुए घोटाले की भी जांच संसदीय समिति से हुई थी। उस समय मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। उसके पहले भी कई बार संसदीय जांच समिति ने भ्रष्टाचार और घोटालों की जांच की है और सरकार इसके लिए तैयार भी हुई है।
पर इस समय सरकार इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं है। आखिर क्यों? इसका कारण जानना कठिन नहीं है। दरअसल मनमोहन सिंह की सरकार एक अल्पमत की सरकार है। लोकसभा में इसे साधारण बहुमत से एक दो सीटें कम का समर्थन प्राप्त है। राज्य सभा में तो इसकी हालत और भी खराब है। वह किसी तरह लोकसभा में अपने बहुमत का जुगाड़ कर सरकार बचाती रहती है। यदि लोकसभा और राज्य सभा के कुल सांसदों की संख्या के हिसाब से देखा जाय, तो मनमोहन सिंह सरकार का अल्पमत स्वरूप और भी निखर कर सामने आता है।
जाहिर है, जांच के लि जो भी संसदीय समिति बनेगी, उसमें विपक्षीी सांसदों की संख्या ज्यादा रहेगी। जांच के निष्कर्षों में यदि एक राय नहीं बनी, तो बहुमत सदस्यों की राय को संसदीय समिति की जांच का निष्कर्ष माना जाएगा। यानी लोकसभा में किसी तरह अपने बहुमत का जुगाड़ करके अपनी जान बचाने वाली सरकार के लिए जांच समिति में अपने समर्थको ेकी संख्या बढ़ाने में भी एड़ी चोटी के पसीने एक करने पडेंगे। और यदि वह ऐसा करने मे विफल रही, तो फिर जांच उसके खिलाफ जाने का खतरा उसे साफ दिखाई दे रहा है।
जांच समिति के निष्कर्ष तो बाद में आते हैं। उसके पहले जांच के दौरान भी सरकार के सामने अप्रिय स्थिति आ सकती है। विपक्ष भ्रष्टाचार के मामलोे में प्रधानमंत्री कार्यालय को भी घसीट रहा है। राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले के मामलों में तो भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने साफ साफ पीएमओ पर इनमें शामिल होने के आरोप लगाए हैं। आरोप लगाते हुए उन्होंने कुछ दस्तावेजी सबूत भी सार्वजनिक किए हैं। अब यदि जांच उस संसदीय समिति से हो, जिसमें विपक्ष का बहुमत है, तो फिर अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय की कितनी छिछालेदर इस जांच के दौरान ही हो जाएगी।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक साफ छवि के ईमानदार नेता हैं। इसलिए उनके व्यक्तित्व पर किसी जांच की आंच आने की तो कोई आशंका नहीं है, लेकिन उनका कार्यालय भी यदि भ्रष्टाचार में लिप्त दिखाया गया, तो फिर केन्द्र सरकार के अस्तित्व पर ही संकट आ सकता है। यही कारण है कि केन्द्र सरकार जेपीसी जांच के लिए कतई तैयार नहीं है। (संवाद)
भ्रष्टाचार का मामला: जेपीसी से डर क्यों?
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-11-21 18:34
कांग्रेस नेतृत्व और मनमोहन सिंह सरकार ने भ्रष्टाचार के मामले सामने आने पर पिछले कुछ दिनों में तीन बड़े निर्णय लिए। सबसे बड़ा निर्णय तो ए राजा को सरकार से बाहर का रास्ता दिखाना था। वह निर्णय सबसे बड़ा था, क्योंकि राजा के पीछे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि चट्टान की तरह खड़े थे और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को डीएके की समर्थन वापसी का खतरा भी सता रहा था।