लेकिन यह विश्लेषण सतही है। इसमें शक नहीं कि नीतीश कुमार की सरकार ने सड़क विकासए पुलिया निर्माण, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी और प्राइमरी शिक्षा के क्षेत्र में जो काम किए थे, उसके कारण उनके प्रति लोगों में सराहना का भाव था और इसका लाभ राजग को मिला भी, पर इतनी बड़ी जीत के लिए सिर्फ इन्हीं फैक्टर को जिम्मेदार बताना गलत होगा। यह कहना कि बिहार की जनता जाति से ऊपर उठ गई है और विकास की ओर देख रही है, इसलिए नीतीश सरकार को दुबारा सत्ता में अभूतपूर्व बहुमत से लाई है, बहुत ही सरलीकृत विश्लेषण है।
सचाई यह है कि राज्य के अधिकांश मतदाताओं ने हमेशा की तरह इस बार भी जाति के आधार पर ही मतदान किया है। हां, नीतीश का जाति समीकरण लालू यादव के जाति समीकरण से बहुत ही मजबूत था। लालू के पास पासवान, मुसलमान और यादव (पीएमवाई) का समीकरण था़़़ जिसके तहत राज्य की सिर्फ 35 फीसदी आबादी ही आती है और इस समीकरण के तहत आने वाले सभी मतदाताओं के मत भी लालू को सुनिश्चित नहीं थे। लालू के सत्ता से अलग होने के बाद मुसलमान उनका साथ छोड़ने लगे हैं। वे कांग्रेस की ओर भी मुखातिब हुए हैं और नीतीश कुमार ने भी अपने कुछ सरकारी निर्णयों से उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया है। यादवों में भी लालू के प्रति पहले वाला आकर्षण नहीं रहा, क्योंकि स्थानीय स्तर पर अनेक सशक्त नेता खड़े हो गए हैं, जो यादवों का मत अब अपनी ओर खींच लेते हैं। 35 फीसदी के इस मतदाता आधार को कमजोर करने का काम कांग्रेस ने भी किया, जिसने 49 मुस्लिम और 35 यादव उम्मीदवार खड़े कर दिए। जाहिर है, कांग्रेस के मुस्लिम और यादव उम्मीदवारों ने अनेक सीटों पर लालू यादव के सामाजिक आधार को कमजोर करने का काम किया।
अपने 35 फीसदी के इस सामाजिक आधार के बाहर लालू की स्वीकार्यता लगभग शून्य हो गई है। इस आधार के बाहर के उनके उम्मीदवारों ने अपनी अपनी जातियों के मत पाए होंगे, लेकिन वे उतने नहीं थे, जिनसे लालू की डूबती नाव किनारे लग सके। दूसरी ओर नीतीश कुमार ने अपना ठोस सामाजिक जातीय आधार खड़ा कर रखा है। गैर यादव पिछड़े वर्ग उनके साथ है। सिर्फ इसकी आबादी ही 44 फीसदी होगी। इसके अलावा मुसलमानों के पिछड़े वर्गो को भी उन्होने अपनी ओर लुभाया है। इन वर्गो से उन्होंने दो राज्य सभा सदस्य बनाए और इनके आर्थिक उत्थान के लिए भी कुछ प्रयास सरकारी स्तर से किए। इनकी आबादी भी बिहार की कुल आबादी की 10 फीसदी होगी। 16 फीसदी दलितों में से 11 फीसदी दलितों को महादलित का दर्जा देकर उन्हें उन्होंने रामविलास पासवान से अलग कर दिया। यदि मुस्लिम पिछड़ा वर्ग और महादलितों को नीतीश के गैरयादव पिछड़े आधार में जोड़ दिया जाय, तो उनकी राजनीति का सामाजिक आधार 65 फीसदी हो जाता है, जो लालू के 35 फीसदी आधार से बहुत ज्यादा है। सुशील मोदी नीतीश के इस आधार को और भी मजबूती प्रदान करते हैं, क्योंकि वे व्यापारी समुदाय से आते हैं और बिहार का व्यापारी समुदाय भी पिछड़े वर्गों में ही शुमार होता है। भाजपा के कारण अगड़ी जातियों का आकर्षण भी इस गठबंधन के साथ है। सत्ता में संतोषजनक भागीदारी नहीं मिलने का मलाल अगड़ी जातियों के इलिट क्लास में जरूर है, लेकिन यदि वे नीतीश के खिलाफ होकर लालू के साथ भी नहीं जा सकते और कांग्रेस ने चुनाव क ठीक पहले बिहार के संगठन में जो फेरबदल कर दिए और लालू से टूटकर आए लोगों को महत्व प्रदान कर दिया उसके कारण अगड़ी जातियों के लोगों के पास भी नीतीश कुमार का कोई विकल्प नहीं दिखाई पड़ा।
जाहिर है बिहार का जातीय समीकरण नीतीश के हक में था। पांच साल का उनका कार्यकाल लालू राबड़ी के पिछले 15 सालों के कार्यकाल से ही नहीं, बल्कि उसके पहले के 10 साल के कार्यकालों से भी बेहतर था। अपने सरकार की सफलता गिनाने के लिए नीतीश के पास बहुत कुछ था। यानी जातीय समीकरण के साथ साथ अपनी उपलब्धियां और अपनी काबिलियत से भी नीतीश लोगों को आकर्षित कर रहे थे। लेकिन 85 फीसदी सीटों पर विजय पाने के लिए इतना सब काफी नहीं था। एक अन्य कारण भी था, जिसने वैसे लोगों को भी मतदाता केन्द्रों पर आने को मजबूर कर दिया, जो वोट देने के लिए आमतौर पर बहुत उत्साहित नहीं होते।
उस फैक्टर को हम ‘‘फीयर फैक्टर‘‘ कह सकते हैं। इसके कारण विधानसभा चुनाव में मतप्रतिशत पिछले लोकसभा चुनाव की अपेक्षा करीब 10 फीसदी बढ़़ गया। कुल 2 करोड़ 80 लाख मतदाताओं ने वोट डाले। उनमें 28 लाख वे थे, जिन्होेने लोकसभा मंे अपने वोट नहीं डाले थे। ये वे लोग थेख् जिन्हें डर लगा कि कहीं फिर लालू की सरकार में वापसी न हो जाए। इस डर की वजह भी था। लोकसभा चुनाव के बाद जो 10 विधानसभा के उपचुनाव हुए थे, उनमंे 10 पर लालू और पासवान के उम्मीदवारों की जीत हो गई थी। लालू और पासवान उस जीत को लेकर बहुत ही उत्साहित थे और उन्हें लग रहा था कि वे विधानसभा आमचुनाव में जीत की पूर्व दर्शिका है। लेकिन उस जीत ने ही बिहार के मतदाताओं के करीब 10 फीसदी को मतदान केन्द्रों पर ला खड़ा कर दिया। कहने की जरूरत नहीं कि वे मत नीतीश सरकार के पक्ष में ही गिरे।
दरअसल लालू राबड़ी की 15 साल की सरकार अराजकता और अपराधीकरण के कारण लोगों की स्मृति में अभी भी बनी हुई है। उस राज को जंगल राज का नाम खुद रामविलास पासवान ने दिया था। बिहार के लोगों का एक बड़ा वर्ग उस जंगल राज की वापसी की आशंका से दहल जाता है। वह वर्ग इस चुनाव में अपने जातिगत पूर्वाग्रह से भी ऊपर उठ गया, क्योंकि उसे अपने जातिगत पूर्वाग्रहों से प्रेरित होकर मतदान करने की अपेक्षा अपनी जान और संपत्ति की सुरक्षा ज्यादा जरूरी दिखाई दे रही है। मतदान के दिन बूथ पर निकले जाति पूवाग्रह से ऊपर उठे करीब 10 फीसदी मतदाताओं ने नीतीश के नेतृत्व वाले राजग की जीत को उस अभूतपूर्व बुलंदियों तक पहुंचा दिया, जिसके बारे में किसी ने शायद सोचा ही नहीं था। (संवाद)
बिहार का अभूतपूर्व चुनावी नतीजा
असुरक्षा बोध और जातीय समीकरण ने किया चमत्कार
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-11-24 12:22
बिहार विधानसभा के अभूतपूर्व नतीजों ने निश्चय ही राजनैतिक विश्लेषको को अचंभे में डाल दिया है। वहां के किसी भी विधानसभा चुनाव में अब तक किसी भी राजनैतिक पार्टी अथवा गठबंधन को इतना भारी बहुमत नहीं मिला था। 1977 में जब लोकसभा चुनाव में कांग्रेस भले ही अविभाजित बिहार की सभी सीटों पर पराजित हो गई थी, लेकिन उसके कुछ दिन बाद हुए विधानसभा चुनाव में भी विजयी जनता पार्टी को इतनी बड़ी जीत हासिल नहीं हुई थी। जाहिर है इस अभूतपूर्व, और कुछ के लिए अप्रत्याशित, विजय के कारण ढूंढ़ने के लिए विशेषज्ञ अपने सभी तर्काें का इस्तेमाल कर रहे हैं और कहा जा रहा है कि बिहार की जनता विकास के प्रति इतनी अभिभूत हुई कि उसने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को विधानसभा की 85 फीसदी सीटें जिता दी।