बिहार में चुनाव के पहले मुसलमानों के वोट पाने के लिए कई पार्टियों ने जमकर राजनीति की। लालू यादव तो मुस्लिम वोट पाने के लिए एमवाई (मुस्लिम यादव) समीकरण की राजनीति करते ही रहे हैं और उसके तहत वे अपने संगठन में मुसलमानों को खास तव्वजो देते रहे हैं। चुनाव के समय उनकी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष एक मुसलमान ही था, जिसे उन्होंने चुनाव के बाद अपनी पार्टी के विधायक दल का नेता बना दिया। उनके सहयोगी रामविलास पासवान भी मुसलमानों को रिझाने के लिए डीएम ( दलित मुस्लिम) राजनीति करते रहे हैं। दोनों पार्टियों ने कुल 38 मुसलमानों को अपनी अपने दलों के उम्मीदवार बनाए थे।

कांग्रेस ने भी मुसलमानों को अपनी ओर करने के लिए कोई कोर कसर नहीं उठा रखी थी। चुनाव के ठीक पहले उन्होंने अपनी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष एक मुसलमान को बना दिया और कुल 50 मुसलमानों को अपनी पार्टी का टिकट भी दे दिया। मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बिहार विधानसभा में हमेशा उनकी संख्या के अनुपात में कम ही रहा है, क्यांेकि उनको टिकट ही ज्यादा नहीं मिलते, लेकिन इस बार कांग्रेस ने भारी संख्या में मुसलमानों को उम्मीदवार बना दिया था।

नीतीश कुमार की नजर भी मुस्लिम मतों पर लगी हुई थी। इसके लिए पहले तो उन्होंने मुसलमानों को अगड़ा मुसलमान और पिछड़ा मुसलमान में बंट दिया और अपनी नजरें पिछड़े मुस्लिम मतों पर लगा दी। इसके लिए उन्होंने जिन दो मुसलमानों को उन्होंने अपनी पार्टी के टिकट पर राज्य सभा का सदस्य बनाया, वे दोनों पिछड़े वर्गों के मुसलमान ही थे। पिछड़े वगों के मुसलमानों को उन्होंने स्थानीय निकायों के चुनाव में आरक्षण भी दे डाले। उनकी मुस्लिम राजनीति का चरत उत्कर्ष उस समय दिखाई पड़ा जब उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया और गुजरात की सरकार द्वारा बिहार को दी गई बाढ़ सहायता राशि को ही वापस लौटा दिया था।

जाहिर है मुसलमानों के मत पाने के बिहार में जबर्दस्त राजनीति की गई। लेकिन चुनावी नतीजें से साफ होता है कि मुसलमानों ने राजनैतिक पार्टियों के झांसे में आने से इनकार कर दिया है और अब वहां कोई पार्टी यह नहीं कह सकती कि मुसलमान उनके वोट बैंक हैं। कांग्रेस ने सबसे ज्यादा मुसलमान उम्मीदवार खड़े किए थे। लेकिन उसके 50 उम्मीदवारों में सिर्फ 3 की ही जीत हो पाई। वैसे यह भी सच है कि कांग्रेस के कुल 4 उम्मीदवार ही जीते और उनमें मुसलमान तीन हैं। वे 3 मुस्लिम विधायक भी उस इलाके के हैं, जहां मुसलमानों की संख्या इलाके की कुल संख्या के अके 70 फीसदी है। यानी कांग्रेस के ये तीनों मुस्लिम उम्मीदवार वहीं जीते, जहां, उन्हें जीतने के लिए किसी और समुदाय के मतों की जरूरत ही नहीं पड़ी। मुसलमानों मे भी एक ही जाति, जिसे सुरजापुरी मुसलमान कहते हैं, कांग्रेस के विधायक बनकर आए हैं।

कांग्रेस के अन्य मुस्लिम उम्मीदवार बहुत कम ही जगह अपनी जमानतें बचा सके। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष तो एक साल पहले ही विधानसभा के उपचुनाव में जीतने में सफल हुए थे, पर पार्टी का अध्यक्ष बनना उन्हें महंगा पड़ा और एक साल के बाद हुए आम चुनाव में उनकी बुरी हार हुई, जिसका दर्शन उन्हें नतीजा निकाले के पहले ही हो गया था। कांग्रेस के अधिकांश मुस्लिम उम्मीदवार हजार से कम मत ही पा सके।

लालू पासवान ने 38 मुसलमानों को टिकट दिए थे। उनमें से सिर्फ 8 की ही जीत हो सकी। रामविलास पासवान की पार्टी से 3 विधायक बने और उनमें से दो मुसलमान हैं। लालू की पार्टी से 22 विधायक बने और उनमं से 6 मुसलमान हैं। लालू और पासवान के कुल 10 फीसदी उम्मीदवार ही चुनाव जीत सके थे, पर उनके 20 फीसदी मुस्लिम उम्मीदवार जीतने में सफल रहे। इसका मतलब साफ है कि मुसलमानों ने लालू और रामविलास की पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवारों को मत देने में तो दिलचस्पी दिखाई, लेकिन उन्होंने उनकी पार्टियों के गैर मुस्लिम उम्मीदवारों को जीताने में जोश नहीं दिखाया। उनका यही रवैया कांग्रेस को लेकर भी रहा।

यानी मुसलमानों ने किसी पार्टी के बदले मुस्लिम उम्मीदवारों को मत देेने में अपनी प्राथमिकता दिखाई। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा का एकमात्र मुस्लिम विधायक मुस्लिम बहुल इलाके से भारी मतों से जीता। जनता दल (यू) ने कुल 13 मुस्लिम उम्मीदवार दिए थे, जिनमें 7 विजयी रहे। यानी जद(यू) के 55 फीसदी मुस्लिम उम्मीदवार जीते। यह उसकी अपनी सफलता दर से काफी कम है। जद (यू) के 82 फीसदी उम्मीदवा जीते, जबकि उसके मुस्लिम उम्मीदवारों की जीत का प्रतिशत मात्र 55 ही रहा।

मुस्लिम उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित कराने की अपनी प्राथमिकता के कारण इस बार मुस्लिम समुदाय विधानसभा में अपना प्रतिनिधित्व बढ़ाने में सफल हुआ है। पिछली बार मात्र 15 मुस्लिम उम्मीदवार ही जीतकर विधानसभा में पहुंच सके थे, जबकि इस बार उनके कुल 19 विधायक विधानसभा में हैं। हालांकि उनकी यह संख्या भी उनकी कुल संख्या को देखते हुए बहुत ही कम है। गौर तलब हैं कि मुसलमान बिहार की आबादी के साढ़े 16 फीसदी हैं, जबकि उनका विधानसभा में प्रतिशत 8 फीसदी से भी कम है।

पार्टी का मोह छोड़कर ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार को विधानसभा में पहुचाने की उनकी कोशिश ने मुसलमानों को एक वोट बैक के रूप में इस्तेमाल करने की लालू और कांग्रेस की कोशिशों पर पानी फेर दिया है। अब मुसलमानों को भाजका का भय पहले की तरह नहीं सताता, तो इसका कारण यही है कि अब देश भर में सांप्रदायिक दगों में कमी आई है। संचार क्रांति के कारण से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अब संवदहीनता पहले की अपेक्षा कम हो गई हैं और सांप्रदायिकता की राजनीति को परवान चढ़ाने की कोशिशें विफल होती जा रही हैं। इसलिए अब भाजपा का हौवा दिखाकर मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने की राजनीति भी कमजोर हो रही है।

यह देश की राजनीति के लिए अच्छी बात है। यह मुसलमानों के लिए भी अच्छा ही है, क्योंकि भय की मानसिकता से ग्रस्त होकर किए गए मतदान को सही नहीं माना जा सकता। हालाकि मुसलमानों द्वारा मुस्लिम उम्मीदवारों को ही तरजीह देने के कारण जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होता है, उसके कारण अंत में मुसलमानों का ही नुकसान होता है, क्योंकि उनकी कम संख्या के कारण ज्यादा जगहों पर उनकी हार हो जाती है। लेकिन यह समस्या देश की दलीय व्यवस्था की समस्या है, जिस पर जातिवाद हो गया है। देखना यह है कि उत्तर प्रदेश में भी क्या मुसलमान बिहार के ढर्रे पर ही मतदान करते हैं अथवा नहीं।(संवाद)