यानी दोनों पक्ष अपनी अपनी बातों पर अड़े हुए हैं। विपक्ष को भ्रष्टाचार के मामले पर जेपीसी से कम कुछ भी स्वीकार नहीं है और सरकार व मुख्य सरकारी पार्टी कांग्रेस जेपीसी जांच के लिए कतई तैयार नहीं है। विपक्ष जेपीसी की जांच क्यों चाहता है, इसके लिए उसके पास ठोस तर्क है, सरकार जेपीसी क्यों नहीं चाहती, इसका कारण बताने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं है। सरकारी पक्ष विपक्ष को चुनौती दे रहा है कि वह इस मसले पर केन्द्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर देख ले। विपक्ष को पता है कि अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार को गिराया नहीं जा सकता, क्योंकि उसके पास वैकल्पिक सरकार देने का कोई फार्मूला नहीं है और विपक्ष के भी अधिकांश सांसद चुनाव नहीं चाहते। विपक्ष को यह भी पता है कि एक बार अविश्वास प्रस्ताव में सरकार जीत गई, तो फिर भ्रष्टाचार के मामले पर चल रही राजनैतिक लड़ाई की विजेता सरकार हो जाएगी और विपक्ष द्वारा किया गया सारा विरोध उसी के खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा।

इसलिए विपक्ष तबतक इस सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव नहीं ला सकता, जबतक उसके पास इसी लोकसभा में वैकल्पिक सरकार बनाने का कोई फार्मूला नहीं हो। उसके पास न तो इस तरह को कोई फार्मूला है और न ही इस तरह का कोई फार्मूला उसके पास निकट भविष्य में बनने की कोई संभावना है। यही कारण है कि यूपीए सरकार अल्पमत में होने के बावजूद बहुमत की सरकार के रूप में काम कर रही है। 543 सदस्यों की लोकसभा में उसके पास कुल 259 सांसद हैं, जो बहुमत से 13 कम है, लेकिन विपक्ष के विभाजित होने के कारण और सांसदों के मध्यावधि चुनाव का सामना करने से डरने के कारण किसी अविश्वास मत में सरकार के गिरने की फिलहाल दूर दूर तक कोई संभावना नहीं है।

न तो केन्द्र सरकार के गिरने की कोई संभावना है और न ही लोकसभा के भंग होने की कोई आशंका, लेकिन फिर भी मध्यावधि चुनाव के चर्चे शुरू हो गए हैं। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी का कहना है कि केन्द्र सरकार के कुछ मंत्री इस तरह की बातें फैला रहे हैं और इसके पीछे उनका मकसद विपक्ष के विधायकों को धमकाना है। वे उन्हें धमकाकर विपक्ष में फूट डालने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि डेढ़ साल के बाद ही कोई सांसद फिर से चुनाव में जाना नहीं चाहेगा।

धमकी के रूप में ही सही, पर मध्यावधि चुनाव की चर्चा तो शुरू हो ही गई है। और यह चर्चा कांग्रेस की तरफ से ही शुरू हुई है। पर सवाल है कि क्या कांग्रेस खुद इस चुनाव के लिए तैयार है? अभी बिहार के चुनाव में ही कांग्रेस को भारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है। वह शिकस्त ऐसी थी कि खुद कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को मानना पड़ा कि बिहार में उन्हें अब शून्य से शुरुआत करनी पड़ेगी।

बिहार में कांग्रेस वास्तव में शून्य पर चली गई है। कहने को तो उसे वहां 4 सीटों पर विजय मिली है, पर उन चार में से 3 मुस्लिम विधायक हैं, जो उन क्षेत्रों से जीते हैं, जहां मुसलमानों की आबादी 80 फीसदी है। वे तीनों मुसमलानों की एक ही जाति के हैं। जाहिर है उनकी जीत कांग्रेस के कारण नहीं हुई, बल्कि उनकी जाति व संप्रदाय के कारण हुई। कांग्रेस के चौथे विधायक सदानंद सिंह है, जो बिहार विधानसभा के स्पीकर भी पह चुके हैं और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी। उनके बारे में कहा जाता है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के परोक्ष समर्थन के कारण उनकी जीत हुई है और वह परोक्ष समर्थन उन्हें इसलिए मिला, क्योंकि वे खुद नीतीश की जाति के हैं।

यानी कांग्रेस बिहार में वास्तव में शून्य हो गई है। पार्टी के बूते उसका एक भी उम्मीदवार नहीं जीता है। और शून्यता की इस हालत के लिए बिहार के चुनाव के ठीक पहले राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के राष्ट्रव्यापी चर्चो का हाथ नहीं रहा होगा, इसे नहीं मानने का कोई कारण नहीं है। भ्रष्टाचार ही नहीं, कमर तोड़ महंगाई के कारण भी कांग्रेस का बिहार में बंटाढार नहीं हुआ, इसे नहीं मानने का भी कोई कारण नहीं हो सकता। यह कहना गलत होगा कि कांग्रेस विधानसभा के आमचुनाव के पहले बिहार में शून्य थी। लोकसभा चुनाव में उसका मत प्रतिशत 13 फीसदी था। लोकसभा चुनाव के बाद 10 क्षेत्रों में हुए विधानसभा के उपचुनावों में भी पार्टी को 2 सीटों पर विजय हासिल हुई थी और विधानसभा के आमचुनाव में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद खुद कांग्रेस के लोग ही नहीं, बल्कि कांग्रेस के विरोधी भी कर रहे थे।

पर विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू होते ही राष्ट्रूमंडल खेलों में हुए भ्रष्टाचार के किस्से शुरू हो गए। पूरा मीडिया तैयारी में भ्रष्टाचार और तैयारी की नाकामियों का प्रसारण करता रहा। उसका असर बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के ऊपर भी पड़ा और कांग्रेस शुन्य हो गई।

जब भ्रष्टाचार का असर कांग्रेस पर बिहार में पड़ सकता है, तो उत्तर प्रदेश में क्यों नहीं? उत्तर प्रदेश में 20 नवंबर को दो विधानसभा क्षेत्रों मे उपचुनाव थे। उन दोनों उपचुनाव सपा के उम्मीदवारों की मृत्यु के कारण हुए थे और उनपर मायावती की बसपा ने उम्मीदवार नहीं खड़े किए थे। उनके नतीजे कांग्रेस के लिए बिहार की तरह ही निराशाजनक रहे। कांग्रेस के उम्मीदवार दोनों जगह तीसरे नंबर पर रहे। जीत तो सपा के उम्मीदवारों की ही हुई, लेकिन बसपा की अनुपस्थिति में भी दूसरा नंबर तक प्राप्त न कर पाना कांग्रेस के उत्तर प्रदेश की दशा को दर्शाती है।

उत्तर प्रदेश में पंचायतों के चुनाव भी हो रहे हैं। जिला पंचायतों के चुनाव में कांग्रेस को कुल 72 जिलों में से 2 पर विजयश्री प्राप्त हुई है। 55 सीटें पाकर बसपा बहुत आगे और 10 सीटें पाकर सपा मुख्य विपक्ष की अपनी भूमिका पर कायम है। यानी उत्तर प्रदेश का चुनावी संग्राम सपा और बसपा के बीच ही अभी भी होना है। तो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जो बढ़त प्राप्त की थी, उसका क्या हुआ? क्या वह भ्रष्टाचार की भेंट तो नहीं चढ़ गया? ओर यदि भ्रष्टाचार के साये में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव होता है, तो कांग्रेस की क्या हालत होगी, इसका कोई भी सहज अनुमान लगा सकता है। (संवाद)