पिछले जून महीने में पेट्रोल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त किया गया और तब से पेट्रोल 17 फीसदी महंगा हो गया है। देश में पेट्रोल से चलने वाले दुपहिया और चौपहिया वाहनों की संख्या बढ़ने के साथ साथ देश की ज्यादा से ज्यादा आबादी इसकी कीमत बढ़ने से सीधे तौर पर प्रभावित होती है। जाहिर है पेट्रोल की कीमत बढ़ने से करोड़ों लोगों की जेब पर सीधा असर पड़ गया है। यही कारण है कि इसकी कीमतों में वृद्धि का मामला कोई व्यापारगत मामला ही नहीं, बल्कि एक राजनैतिक मसला भी बन जाता है।

कहने को तो सरकार अब इसकी कीमतों का निर्धारण नहीं करती, लेकिन सच्चाई यही है कि पेट्रोल बेचने वाली ज्यादातर कंपनियां सरकारी ही हैं और वे कंपनियां कीमत बढ़ाने के पहले सरकार की ओर एक बार देख लेना जरूरी समझती हैं। इसलिए नियंत्रण हटाने के बावजूद केन्द्र सरकार अपनी तेल कंपनियों द्वारा कीमतों को बढ़ाए जाने को उन कंपनियों का व्यापारिक निर्णय बताकर टाल नहीं सकती। लिहाजा वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को पेट्रोल की कीमत में की गई ताजा बढ़ोतरी को जायज ठहराने के लिए बयान जारी करना पड़ रहा है।

सवाल उठता है कि क्या पेट्रोल की कीमतों में यह वृद्धि जरूरी हो गई थी? यदि तेल कंपनियों के खातों को देखें, तो यह उनके लिए जरूरी हो गया था। सच तो यह लगभग 3 रुपए की मूल्य वृद्धि के बाद भी अभी वे अपनी लागत से 50 पैसे प्रति लीटर कम की आमदनी कर रहे हैं। लेकिन यदि हम पेट्रोल की उपभोक्ता कीमतों को बारीकी से देखें, तो साफ दिखाई पड़ता है कि उपभोक्ताओं द्वारा भुगतान की गई राशि का एक बहुत बड़ा हिस्सा टैक्स के रूप में सरकार के पास चला जाता है। जाहिर है, यदि सरकार चाहे तो पेट्रोल पर लगाए जाने वाले टैक्स में कमी करके इसकी कीमतों को कम कर सकती है। एक आकलन के अनुसार प्रति लीटर पेट्रोल उत्पादन पर करीब 27 रुपए का खर्च होता है। उपभोक्ताओं को एक लीटर के लिए 60 करीब 60 रुपए का खर्च करना पड़ रहा है। यानी जितनी पेट्रोल की लागत राशि लगभग उतना ही उस पर टैक्स।

एक अरसे से पेट्रोलियम उत्पाद केन्द्र सरकार की राजस्व प्राप्ति का जरिया रहे हैं। केन्द्र सरकार के परोक्ष करों का एक बड़ा हिस्सा कच्चा तेल और उसके उत्पादको से प्राप्त होता है। यदि केन्द्र सरकार उनमें कटौती करने लगे तो उसे कहीं न कहीं और टैक्स लगाना होगा। इसलिए वह राजस्व उगाही के लिए पेट्रोलियम पदार्थों पर अपनी निर्भरता को कम नहीं करना चाहती है।

भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए आयात पर आश्रित है। हमें जितना कच्चा तेल चाहिए उसका एक तिहाई भी हमारे पास उपलब्ध नहीं है। और जब जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों को झटका लगता है तो भारत को भी झटका लगता है। नियंत्रण की व्यवस्था के तहत सरकार झटकों को भरसक अपने तक सीमित करने की कोशिश किया करती थी, लेकिन अब लगता है कि देश को तेल उत्पादों की कीमतों में होने वाली लगातार वृद्धि के लिए अपने को तैयार कर लेना चाहिए। रसोई गैस, डीजल और किरासिन तेल की कीमतों पर अभी भी केन्द्र सरकार का नियंत्रण है और पेट्रोल से नियंत्रण हटाकर केन्द्र सरकार देख रही है कि देश के लोग तेल के झटकों को बर्दाश्त करने की कितनी ताकत रखते हैं। देश में हो रही इंधनों की कुल खपत में पेट्रोल की हिस्सेदारी 10 फीसदी है। देश की आबादी का संपन्न तबका इसका उपभोग करता है, इसलिए सबसे इसकी कीमत पर से ही नियंत्रण हटाया गया है। नियंत्रण समाप्ति के बाद इसकी कीमतों में की गई 17 फीसदी की वृद्धि के बाद भी इसकी मांग में तेजी बनी हुई है।

यानी कीमतें बढ़ने के बाद भी इसकी मांग में कोई कमी नहीं आ रही है, बल्कि यह बढ़ती ही जा रही है। पिछले 5 महीनों मे कीमतों में की गई 17 फीसदी की वृद्धि के बावजूद इसकी मांग में 11 फीसदी से भी ज्यादा की वृद्धि हुई है। यदि कीमतों में वृद्धि न हो तो शायद पेट्रोल की खपत और भी बढ़ जाए। जब देश की अर्थव्यवस्था का विकास फीसदी की दर से हो रहा हो और चौपहिया व दोपहियों वाहनों की बिक्री की वृद्धि दर भी लगातार तेज बनी हुई हो, तो फिर पेट्रोल की खपत में कमी की उम्मीद की भी नहीं जा सकती। और फिर तब उसकी खपत पर अंकुश लगाने के लिए पेट्रोल को महंगा करना एक बेहतर विकल्प हो जाता है।

जब हम भारत में पेट्रोल की कीमतों की तुलना दुनिया के अन्य देशों में उसकी कीमतों से करें, तो शायद हमारे देश के पेट्रोल उपभोक्ताओं को निराश होना पड़े। इसका कारण यह है कि जब पिछले अगस्त महीने में पाकिस्तान में पेट्रोल की कीमत मात्र साढ़े 31 रुपए प्रति लीटर ही थी और मलेशिया में तो यह मात्र 21 रुपए प्रति लीटर थी। यह अमेरिका में 28 रुपए प्रति लीटर और आस्ट्रेलिया में 44 रुपए प्रति लीटर थी।

हां, भारत के पेट्रोल उपभोक्ता यह जानकर शायद राहत महसूस करेंगे कि पिछले अगस्त महीने में तुर्की में पेट्रोल साढ़े 90 रुपए प्रति लीटर था, जबकि इटली में 72 रुपए। यूरोप के अधिकांश देशों मे पेट्रोल भारत की अपेक्षा बहुत ज्यादा महंगा है। यानी कच्चे तेल के आयातक देशों में अनेक ऐसे देश हैं, जहां पेट्रोल भारत की अपेक्षा महंगा है। अब जब भारत सरकार ने इस पर से नियंत्रण हटा लिया है और तेल कंपनियां कच्चे तेल की कीमतों और इसकी उत्पादक लागत के आधार पर इसकी कीमत तय करने के लिए आजाद हो गई हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि आने वाले दिनों में इसकी कीमतें और भी बढ़ सकती हैं। डीजल, किरासन और रसोई गैस पर यदि सरकारी नियंत्रण बना रहा तो उनके कारण हो रहे घाटों की भरपाई के लिए भी शायद तेल कंपनियां पेट्रोल को ही बलि का बकरा बना दे। तब शायद इसकी कीमत और भी बढ़े। जाहिर हैं अब पेट्रोल के उपभोक्ताओं को इसकी बढ़ती कीमतों के लिए हमेशा तैयार रहना होगा। (संवाद)