सत्ता के प्रति क्षोभ लेकिन जन प्रतिक्रिया के स्तर पर लगभग सन्नाटा, राष्ट्रीय राजनीति में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच अंतहीन गतिरोध और सबसे बढ़कर भ्रष्टाचार का भयानक विस्फोट..... आदि 2010 के आरंभ में सामने नहीं थे। हालांकि जो चिंता, चुनौतियां और समस्याएं हमें 2011 के आंरभ मे दिख रहीं हैं वे 2010 से जुड़ी हैं और इनकी जड़ें काफी पीछे जातीं हैं। यानी कोई यह नहीं कह सकता कि 2011 की चुनौतियां बिल्कुल अलग या नई हैं। वस्तुतः 2011 की सारी चुनौतियां अंततः 2010 की या उसके पूर्व के वर्षों की विरासत हैं, क्योंकि समय की गति किसी बिन्दु पर आकर ठहरती नहीं जहां से हम एकदम साफ विभाजक रेखा खींच सकें। समय की गति तो सतत् प्रवाहमान है और 2010 एवं 2011 की संक्रमण बेला भी उस सतत् प्रवाही गति के ही अंग हैं। किंतु 2011 के आरंभ में जो चुनौतियां सतह पर शत-प्रतिशत दृश्य नहीं थीं वे 2011 में बिल्कुल सामने दिख रहीं हैं और दोनों के बीच यही अंतर है।

दृश्य और अदृश्य का यह अंतर सामान्य नहीं है। 2010 के पहले सूर्योदय तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग द्वितीय सरकार कई सकारात्मक संकेत दे रही थी। मसलन, 26 नवंबर 2008 के मुंबई हमलों के बाद पूरे वर्ष एक भी आतंकवादी हमला नहीं हुआ। लेकिन पुणे, फिर दिल्ली और वाराणसी विस्फोट के साथ आतंकवाद के दैत्य ने यह संदेश दे दिया है कि उसकी चुनौती यथावत कायम है। जिस नव माओवाद को प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री दोनों आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बताते रहे उसने 2010 में सीआरपीएफ के जवानों की सामूहिक हत्या का रिकॉर्ड बनाने के साथ बस और रेल को निशाना बनाकर अपनी चुनौती की प्रखरता दर्शा दिया है। देश आतंक की इन दोनों चुनौतियों का कैसे सामना करेगा यह प्रश्न पहले के समान ही मौजूद है। युवा मुख्यमंत्री के हाथों जम्मू कश्मीर की बागडोर आने से जो आशा जगी थी, 2010 के अंत के साथ उस पर तुषारापात हो चुका है। अपनी हताशा में उमर अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया। कश्मीर ने जन विद्रोह की सशक्त चुनौती पेश की है। यह जन आक्रोश पहले से कई मायनों में भिन्न है। पत्थर से इंतिफादा करते नागरिक पहले नहीं देखे गए थे। तो जम्मू कष्मीर की सतत् चुनौतियों में एक नया आयाम हमारे सामने है और इसका संवेदनशील प्रत्युत्तर देने की चुनौती सरकार के सामने है। यही स्थिति पूर्वोत्तर की है। आर्थिक मोर्चे पर महंगाई पर नियंत्रण तो प्रमुख चुनौती है ही, कृषि की मंद चाल को तीव्र बनाने की समस्या भी हमारे सामने है।

इस प्रकार हम चुनौतियों की लंबी फेहरिस्त बना सकते हैं। लेकिन गहराई से विचार करने पर ये सारी चुनौतियां दरअसल, मूल चुनौती के प्रतिफल नजर आते हैं। आखिर ये चुनौतियां क्यों पैदा हुई, इनके लिए जिम्मेवार कौन है और इनसे निपटने का दायित्व किनका है? संसदीय लोकतंत्र में हमारी दुनियावी नियति बहुत हद तक राजनीतिक प्रतिष्ठान द्वारा निर्धारित होती है और इसके दो पक्ष हैं, सरकार और विपक्ष। 2011 इस मायने में कितने डरावने परिदृश्य से साक्षात्कार करा है यह बताने की आवश्यकता नहीं। सरकार के सामने विपक्ष को मनाने की चुनौती तो है ही, उसे स्वयं अपनीी साख और विश्वसनीयता भी पुनप्रतिष्ठित करनी है। 2011 का उदय सरकार की साख पर छाए अब तक के सबसे बडे़ घटाटोप के मध्य हुआ है। जिस सरकार की साख पर ही ग्रहण लग चुका हो, उसकी महिमा कैसे बनी रह सकती है। और जब महिमा ही नष्ट हो तो वह किस आत्मबल के साथ चुनौतियों का जवाब दे सकता है? वस्तुतः विश्व की बड़ी शक्तियां चाहे भारत का जितना महिमामंडन करें, एक देश के तौर पर सत्ता प्रतिष्ठान के महिमालुंठन से बाहर आना 2011 की प्रमुख मनोवैज्ञानिक चुनौती है। देश का सामूहिक मनोविज्ञान यही है कि वर्तमान सरकार भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एवं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी दोनों की प्रदर्शित की जा रही व्यक्तिगत ईमानदारी से देश के लिए कोई अंतर नहीं आया है। इनके मातहत आम जन के हिस्से का कई लाख करोड़ का वारा न्यारा होता रहा और यदि इन्हें इसकी भनक तक नहीं लगी तो फिर देश इनसे कैसे कोई उम्मीद करे। हालांकि 2010 के अंतिम दिनों तक सरकार की ओर से यह विश्वास दिलाने की भरपूर कोशिश हुई कि किसी भ्रष्टाचारी को बख्सा नहीं जाएगा, किंतु देश में इस वायदे के प्रति भरोसा का मनोविज्ञान नहीं कायम हो सका है। भ्रष्टाचार करने वालों को सजा, उनके द्वारा हड़पे गए रकम की वापसी के साथ शीर्ष, मध्य एवं निम्न तीनों स्तरां के भ्रष्टाचार पर कारगर चोट कैसे हो, इसका जवाब सरकार देने में सक्षम नहीं हो पाई है। सच कहें तो 2011 की इस वेला में देश का पहले से डगमगाया आत्मविश्वास और कमजोर हुआ है। कमजोर आत्मविश्वास वाला देश कभी बड़ी चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना नहीं कर सकता।

जहां तक राजनीतिक प्रतिष्ठान के दूसरे पाले यानी विपक्ष का प्रश्न है तो अपनी भूमिका से देश के खोए आत्मविश्वास को वापस लाने के यत्न करने का दायित्व इसका भी है। क्या नए वर्ष की आंखों से आप विपक्ष को ऐसी भूमिका में देख रहे हैं? 2010 में आरंभ मोर्चाबंदी हालांकि सरकार को कुछ कदम उठाने के लिए बाध्य करने वाला साबित हुआ है, लेकिन इससे किसी प्रकार की सकारात्मक उम्मीद का मनोविज्ञान निर्मित नहीं हुआ। आम नागरिक विपक्ष को भी निष्पाप एवं सदाचारी मानने को तैयार नहीं है। इस प्रकार पूरे राजनीतिक प्रतिष्ठान के प्रति अविश्वास का माहौल और घना हो रहा है। आम जन की दृष्टि से विचार करें तो यह बिल्कुल क्षोभ और हताशा का समय है। यदि देश करवट भी लेना चाहे तो उसके सामने विकल्प क्या है? किंतु सोचने वाली बात यह है कि क्या सरकार या सम्पूर्ण राजनीतिक प्रतिष्ठान के विरुद्ध आम नागरिक की ओर से ऐसी किसी स्वाभाविक सामूहिक प्रतिक्रिया की किंचित संभावना आपको नजर आ रही है? राजनीतिक प्रतिष्ठान का आधार तो नागरिक समाज ही है। इस दृष्टि से विचार करें तो 2011 का आरंभ नागरिक समाज की उदासीनता का दौर और घनीभूत होने के साथ हुआ है। यह साधारण चिंता की बात नहीं है। नागरिक समाज चाहे तो स्थिति बदलते देर नहीं लगेगी। वह सरकार एवं विपक्ष दोनों को रास्ते पर ला सकता है। इस समय का सबसे डरावना सच यही है कि भारत के नागरिक समाज की भूमिका केवल आक्षेप करने, क्षुब्ध होने तक ही सीमित है। यह स्वीकारने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए कि 2001 के इस चिंताजनक क्षण में भारत का नागरिक समाज एक स्वाभाविक जीवंत, जागरुक, और संवेदनशील कर्तव्यनिश्ट नागरिक समाज के रुप में सामने नहीं है। जाहिर है, अगर 2011 की कोई सबसे बड़ी चुनौती है तो नागरिक समाज की अस्वाभाविक स्पंदनहीनता, देश की चुनौतियों से विमुख होने तथा निजी और सामूहिक दायित्वों से कन्नी काटने का स्वभाव। चूंकि 2011 का आरंभ इन आत्मघाती प्रवृत्तियों के अंत का कोई संकेत नहीं दे रहा है, इसलिए हम यह उम्मीद कर ही नहीं सकते कि जो लाक्षणिक चुनौतियां सतह पर भयावह रुप में दिख रहीं हैं उनका अंत 2011 में हो जाएगा। इसलिए एक राष्ट्र के तौर पर हमारी सबसे बड़ी चुनौती नागरिक समाज को राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति जागरुक, स्पंदनशील और सक्रिय बनाने की है। (संवाद)