राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ने के लिए राष्ट्रभाषा को राष्ट्र के पूर्वजों द्वारा निर्धारित किया जाता है। इसे तय करने का आधार राष्ट्र की बहुसंख्या द्वारा अपनाई गई भाषा होता है। निःसंदेह भारत की 80 प्रतिशत जनता द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा हिंदी ही अधिकारिक रुप से राष्ट्रभाषा है।

बोलचाल की हिंदी भारत ही नहीं दक्षिण एशिया के देशों की बहुउपयुक्त भाषा है। स्वाधीनता संग्राम के कालखण्ड में हिंदी को र्निविवाद रुप से सारे भारत ने स्वीकार किया था। महात्मा गांधी ने सन् 1909 में ही अपनी ‘हिंद स्वराज्य’ नामक पुस्तक में राष्ट्रभाषा के रुप में हिंदी भाषा पर बल दिया था। उनकी और देश के सभी सुधीजनों की यह र्निभ्रान्त मान्यता थी कि हिंदी ही देश सर्वाधिक प्रचलित, बोधगम्य होने के कारण देश और देशजनों को एक सूत्र में जोड़ने वाली कड़ी है। तत्कालीन ‘हिंदुस्तानी व हिंदी’ के द्वन्द के बीच ‘संविधान सभा’ ने संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा के बजाय राजभाषा का दर्जा दिया था। तब स्वभावतः इस भाषा प्रसंग का पटाक्षेप हो जाना चहिए था, परन्तु दुर्भाग्य से तभी से हिंदी के विरोध का कुचक्र प्रारम्भ हुआ जो आज तक निर्बाधगति से चल रहा है। हिंदी को अनंतकाल के लिए बनवास देकर राज्यों के रहमोंकरम पर छोड़ दिया गया। देश में महत्मा गांधी की मृत्यु के बाद बड़ी ही निर्ममता और निर्लज्जता से स्वदेशी, स्वभाषा और स्वाभिमान जैसे स्वतंत्रता कालीन राष्ट्रउन्नयनकारी मूल्यों का जनाजा बड़ी ही बेर्शमी से मैकाले की शिक्षानीति द्वारा शिक्षित काले अंग्रेजों द्वारा निकाल दिया गया।

‘सविधान में राष्ट्रभाषा’ शब्द का कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया है। संविधान के भाग 17 का शीर्षक है ‘राजभाषा’ और इसका अध्याय 1 संघ की भाषा के विषय में है। इसके अनुच्छेद 344 राजभाषा के सम्बंध में आयोग और संसद की समिति के बारे में है। अध्याय 2 का शीर्षक है ‘प्रादेशिक भाषाएं’ इसके अंतर्गत अनुच्छेद 345 ‘राज्य की राजभाषा या राजभाषाएं’ सम्बंधी है। अनुच्छेद 346 एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा विषयक है। इन अनुच्छेदों में कहीं भी किसी भाषा को राष्ट्रभाषा नहीं कहा गया है। परन्तु उसके अनुच्छेद 351 में हिंदी के राष्ट्रभाषा रुप की केवल कल्पना ही की गई है। राजभाषा आयोग की सिफारिश पर जो वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग बना है, उसने शब्दावली इस तरह तैयार की है कि वह केवल हिंदी भाषा के लिए ही काम न आए, अपितु उसका प्रयोग सामान्यतः अन्य भाषाओं में भी हो सके।

हिंदी एक गतिशील भाषा है, यह केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व भर में फैले हुए भारतवंशियों के बीच विचारों के आदान प्रदानका सबसे सशक्त माध्यम बन गई है। हिंदी भारत की जनता भाषा है, और जब शासक जनता की भाषा में कामकाज करता है तो, इससे आम नागरिेक को एक सहज संदेश पहुंचता है। ऐसा होने पर शासक जनता का विश्वास जीतता है और उसे अपने कार्यकलापों में शासन को कोई कठिनाई भी महसूस नहीं होती। शासक और शासित के बीच की दूरी कम करके जनता से सीधे बातचीत का द्वार खोलने के लिए जनभाषा ही सबसे सशक्त माध्यम होती है। पिछले डेढ़ दशक से संघ लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी भाषा के माध्यम से परीक्षा देने वाले प्रतियोगियों का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। विगत वर्षों में कई प्रतियोगियों ने अच्छे रैंक भी प्राप्त कियें हैं। चयन के पश्चात् 25 प्रतिशत के लगभग प्रतिभागी हिंदी माध्यम को लेकर आगे बढ़ते हैं और उन्हें निःसन्देह सफलता भी मिलती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि संघ लोक सेवा अयोग की विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रतिभागियों ने हिंदी को अपनाने में किसी प्रकार की कोई झिझक महसूस नहीं की। प्रगति एवं सफलता का एहसास बहुत ही सुखद होता है। इसे हमें अपनी ही भाषा के माध्यम के सहारे सहज ही ग्रहण करना चाहिए और जीवंत पर्यन्त भाषा के मानविंदुओं पर अड़िग रहना चाहिए।

जो देश भाषा की गुलामी स्वीकार कर लेता है वह किसी भी बात में स्वतंत्र नहीं हो सकता और उसका चरित्र औपनिवेशिक बन जाता है। यह एक पारदर्शी कसौटी है कि चाहे वे किसी भी समुदाय के लोग हों, जिन्हें हिंदी को मानने में आपत्ति है, वह भारत को फिर से एक और विभाजन की कगार में धकेल रहे हैं। लार्ड मैकाले ने जब 1834 ईस्वी में भारत आकर भ्रमण किया और भारत में लोगों के चमकते हुए चेहरों पर स्वाभिमान का तेज देखा तो उसकी आंखे चौंधिया गयीं। उसने महसूस किया कि ऐसी स्थिति में भारत को और अधिक समय तक गुलाम नहीं बनाया जा सकता है। वापस जाकर उसने भारतवासियों के स्वाभिमान व तेज को समाप्त करने की एक कुटिल चाल के रुप में, भारतीयों के लिए ऐसी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण कराया जिसमें, भारतीय शरीर से तो भारतीय रहें और दिमाग से अंग्रेज बन जायें। जिससे भारतीयों को अपना सब कुछ तुच्छ लगे और अंग्रेजों का सब श्रेष्ठ, अपनों से नफरत और अंग्रेजियत प्रेम पैदा हो। ऐसी शिक्षा व्यवस्था को भारत में लागू कराकर मैकाले तो इस दुनियां से चला गया परन्तु उसके मानसपुत्र आज भी भारत के करोड़ों लोगों के साथ अंग्रेजों के जैसा व्यवहार कर रहे हैं। भारत को लूटने, घसोटने और भ्रष्टाचार का षडयंत्र रच रहे हैं। अनेकों अनेक दुस्चक्रों में फांसकर भारतीय संपदा का दोहन कर रहे हैं। इन्ही कारणांे से भारत में गरीबी, भुखमरी, घोटाले पर घोटाला और किसानों की आत्महत्या जैसे करनामों की बाढ़ सी आ गई है। लोकहितों पर कुठाराघात करने वाली आतंकवाद जैसी अनेक धटनाओं की बहुतायत होती जा रही है।

हिंदी की दशा और दिशा पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और राजभाषा के रुप में इसकी वर्तमान दशा और दिशा पर आगे भी लिखा जाता रहेगा । परन्तु सच्चाई यह है कि हिंदी की दिशा के रुप में जो मार्ग सुझाए जाते रहे हैं वे व्यवहारिक कम ही होते हैं। जैसे प्रमुख सुझाव होता है कि मानसिकता में परिवर्तन लाया जाय। परिवर्तन किस तरह से लाया जाय, उसके लिए क्या किया जाय, क्या प्रक्रिया होनी चाहिये इन बातों पर कभी चर्चा भी नहीं होती और होती भी है तो वह व्यवहारिक नहीं होती है। क्या राजभाषा नीति को लागू करने या अधिनियम बना देने मात्र से कर्मचारी बाध्य हो जायेंगे। राजभाषा के कार्यान्वयन और प्रयोग के संबन्ध में नियम या अधिनियम बने कई दशक बीत जाने के बाद भी अपेक्षानुसार प्रगति क्यों नहीं हुई?

सरकारी संगठन सितंबर माह में राजभाषा के कार्यक्रम बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं। काफी श्रम एवं धन व्यय किया जाता है परन्तु राजभाषा के प्रयोग और कार्यान्वयन की स्थिति में कोई परिवर्तन होता नहीं दिखाई पड़ता। राजभाषा के नाम पर बैठकें, सम्मेलन, संगोष्ठियों, कविगोष्ठियों, प्रतियोगिताओं का आयोजन किसी औपचरिकता को पूर्ण करने की दृष्टि से न हों बल्कि, ये सभी कार्य उसमें निहित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होने चाहिए। ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन में पूर्ण संकल्प चाहिए कि अब तक इस दिशा में कार्य की जो प्रगति हुई है भविष्य में उस कार्य को आगे बढाने की पूर्ण निष्ठा होनी चहिए। कार्यालय प्रधान को इसमें विशेष रुचि लेकर पहल करने से आधीनस्त कर्मचारी भी कार्य को आगे बढ़ाने में अग्रगामी होंगे। कार्यालय प्रमुख इस दिशा में जितनी अधिक रुचि लेंगे, प्रगति भी उतनी तीव्रगामी रुप में संभव होगी।