समकालीन भारतीय वौद्धिक वर्ग आयातित अपुष्ट विचारों की सम्पूर्णता की मरीचिका के पीछे भाग रहा है, जबकि वह स्वयं विचारों की सम्पूर्णता का वाहक बन सकता है। आज का यह वौद्धिक वर्ग तो केवल मार्क्सवाद और गैरहिन्दू छद्म विचारों से प्रेरित हैं। चाहे केरल के हों अथवा बंगाल के वामपन्थी, भारत की अपनी महान परम्पराओं से पूर्णतः कट गये हैं। हिन्दू धर्म की महान शक्ति का आभास तक न कर सकने वाले ये लोग कितने अवचेतन में हैं।

सबसे सुखद बात यह है कि आज समस्त विश्व भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है क्योंकि विश्व की सभी विचारधाराएं असफल सिद्ध हो रही हैं। विश्व के अधिकतर लोग भारतीय जीवन पद्धति को अपना रहे हैं। हिन्दू धर्म ही विश्व का एकमात्र धर्म है जो पूर्णतः लोकतांत्रिक है, जिसमें किसी एक पूजापद्धति पर जोर नहीं दिया जाता है। जबकि अन्य कई प्रमुख मतों में नियम तोडने पर व्यक्ति को काफिर घोषित कर दिया जाता है। इसी कारण से पोप या मुस्लिम धर्मगुरू मतांतरण पर रोक लगाने वाली अपील आज तक नहीें कर सके। एक उपमहाद्वीप के रूप में अपनी राष्टीय पहचान को रखने वाले भारत की तुलना इंग्लैण्ड से नहीं की जा सकती। अनेक संस्कृतियों को जन्म देनेवाले भारत की सभ्यता उदारता की पोषक है। ईसाई और मुसलमानों को समाहित किये हुए भारत की सांस्कृतिक एकता ही इसकी विशिष्ट पहचान है। विडंबना है कि इतनी महान सभ्यता वाले देश के बुद्धिजीवी, जो पश्चिमी संस्कृति के मोह से बंधे है, हिन्दू आचार-विचार को कट्टरवाद से जोड़कर देखते हैं। उन्हें टाई जैसे मजहबी चिन्हों की व्यवहार में अनिवार्यता पर कोई हिचक नहीं होती, वन्देमातरम् और सरस्वती वन्दना में साम्प्रदायिकता दिखाई देती है। ये पश्चिमी मानसिकता वाले लोग ही वस्तुतः भारत की बौद्धिक समस्याओं की असली जड़ हैं।

पश्चिमी मानसिकता के रोग से ग्रस्त भारत के अनेक पत्रकार व लेखक भारत की नकारात्मक छवि, दुनियां के सामने भारत की निर्धनता, अकाल, आर्यों का बाहर से आगमन, जाति व्यवस्था और हिन्दू धर्म को विकृत रूप में प्रस्तुत कर करते रहते हैं। उपर्युक्त समस्याएं भारत में कभी रही होंगी और आज भी हो सकती हैं, इसका मतलब यह तो नहीं कि इन समस्याओं के अतिरिक्त भारत की कोई और छवि ही नहीं है। दुर्भाग्य की बात है कि तथाकथित यह बौद्धिक वर्ग आडम्बर के आवरण के पीछे भारत के हितों पर कुठाराघात करता रहता है। मार्क्सवाद की अवधारणा से जितना अधिक भारतीय प्रभावित हुये हैं उतना तो शायद ही विश्व का कोई देश हुआ हो। रूस और चीन सार्वजनिक रूप से घोषित साम्यवादी देश हैं, फिर भी वे अपने राष्टीय हितों को सबसे ऊपर रखते हैं। वे लोग अपनी अस्मिता और संस्कृति के साथ कोई भी खिलवाड़ नहीं करते, जबकि भारत में इसके विपरीत लोग देश की कमजोरियों और त्रुटियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना अपना सर्वोच्च लक्ष्य बनाते हैं। ये लोग ऐसा करके क्या प्रमाणित करना चाहते हैं ?

अपनी संस्कृति को विस्मृत कर कोई भी देश उन्नति नहीं कर सकता। भारत के इन तथाकथित बुद्धिजीवीयों की हीन मानसिकता के पीछे मुख्य कारण उनमें विदेशी शासकों का प्रभाव, युरोपीय देशों का शासन और मैकाले की शिक्षानीति है। अंग्रेजी भाषा और मैकाले की शिक्षानीति के माध्यम से तैयार हुए मैकाले के मानसपुत्र आज भारत की व्यवस्था में सक्रिय हैं। भारत के गौरवपूर्ण इतिहास, राजनीति, कला, संस्कृति सहित सभी पक्षों को दूषित कर रहे हैं। भारत की प्रशासनिक व्यवस्था को संचालित करने वाले भी अधिकतर इसी मानसिक रोग से ग्रस्त हैं। पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप कार्य करने वाले भारतीय लोकसेवक अब लोकशासक हो गये हैं, जो जनता की सेवा नहीं बल्कि जनता पर शासक की भावना से कार्य करते हैं। भारत को आज सत्य और असत्य का भेद कर सकनेवाली उत्साही युवापीढ़ी और विशुद्ध भारतीय विचारधारा की अत्यंत आवश्यकता है, जो भारत की महान संस्कृति और सभ्यता को पुनः स्थापित कर भारत को विश्व में श्रेष्ठ एवं गौरवपूर्ण स्थान दिला सके।