यह प्रश्न पत्र अर्हक ‘क्वालिफाईंग’ नहीं होगा। बल्कि इसके अंक ‘मेरिट’ में जोड़े जायेंगे और परीक्षार्थी के भाग्य का निर्णय करेंगे। जहां एक-एक अंक निर्णायक सिद्ध होता है। इस प्रकार इस योजना द्वारा अंग्रेजी भाषा को अनिवार्य रूप से थोपा जा रहा है और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए दरवाजे अनंत काल के लिए बन्द किये जा रहे हैं।
दुनिया के किसी भी स्वतंत्र देश की प्रशासनिक सेवा परीक्षा में विदेशी भाषा ज्ञान की अनिवार्यता नहीं है। भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी विभिन्न राज्यों में नियुक्त होते हैं। वे सम्बन्धित राज्य की भाषा सीखते हैं। दक्षिण भारत के अधिकारी उत्तर भारत में नियुक्ति के दौरान सुन्दर हिंदी बोलते और लिखते हैं। इसी प्रकार उत्तर के अधिकारी भी दक्षिण या पूर्वोत्तर के राज्यों में वहां की भाषाओं में कुशलता से कार्य करते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् यह मुद्दा अनेक बार उठाया गया कि क्या संघ की सिविल सेवा परीक्षा केवल उन थोड़े से लोगों के लिए है जो अंग्रेजी के माध्यम से अध्ययन करते हैं और उन बहुसंख्यक छात्रों के लिए नहीे है जो भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हैं। उनके लिए सरकारी नौकरी के द्वार स्थायी रूप से बंद हैं या बहुत कठिन है। यह विभेदकारी है, क्योंकि जमीन से जुड़े बहुसंख्यको के लिए नौकरी में प्रवेश का कोई अवसर नहीं है।
18 जनवरी 1968 को संसद के दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से एक संकल्प एफ. 5/8/65 रा. भा.पारित किया था।
इस संकल्प का पैरा 4 इस प्रकार है,- और जबकि यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि संघ की लोक सेवाओं के विषय में देश के विभिन्न भागों के लोगों के न्यायोचित दावों और हितों का पूर्ण परित्राण किया जाए।
यह सभा संकल्प करती हैः-कि उन विशेष सेवाओं अथवा पदों को छोड़कर, जिनके लिए ऐसी किसी सेवा अथवा पद के कर्तव्यों के संतोषजनक निष्पादन हेतु केवल अंग्रेजी अथवा केवल हिंदी अथवा दोनों, जैसी कि स्थिति हो, का उच्च-स्तर का ज्ञान आवश्यक समझा जाए, संघ सेवाओं अथवा पदों के लिए भर्ती करने हेतु उम्मीदवारों के चयन के समय हिंदी अथवा अंग्रेजी में से किसी एक का ज्ञान अनिवार्यतः अपेक्षित होगा।
सन् 1977 में डॉ. दौलतसिंह कोठारी की अध्यक्षता में एक आयोग गठित हुआ जिस ने संघ लोक सेवा आयोग तथा कार्मिक और प्रशासनिक सुधार विभाग आदि के विचारों को ध्यान में रखते हुए सर्वसम्मति से यह सिफारिश की कि परीक्षा का माध्यम भारत की प्रमुख भाषाओं में से कोई भी भाषा हो सकती है।
सन् 1979 में संघ लोक सेवा आयोग ने इन सिफारिशों को क्रियान्वित किया और भारतीय प्रशासनिक आदि सेवाओं की परीक्षा के लिए संविधान की आठवीं अनुसूची में से किसी भी भारतीय भाषा को परीक्षा का माध्यम बनाने की छूट दी गई। इस परिवर्तन का लाभ उन उम्मीदवारों को मिला जो महानगरों से बाहर रहते थे या अंग्रेजी के महंगे विद्यालयों में नहीं पढ़ सकते थे। उनके पास प्रतिभा, गुण, योग्यता थी किंतु अंग्रेजी माध्यम वाले लोगों ने उन्हें बाहर कर रखा था।
इन सिफारिशों को लागू हुए 30 वर्ष हो चुके हैं। इस अवधि में यह कभी नहीं सुनाई पड़ा कि भारतीय भाषाओं के माध्यम से जो प्रशासक आ रहे हैं, वे किसी भी तरह से अंग्रेजी माध्यम वालों से कमतर हैं। यह स्थिति मैकाले के मानसपुत्रों को सहन नहीं हो रही है। अब चुपके से एक दांव लगाकर कहा जा रहा है कि सेवा में सुधार किया जा रहा है। जबकि वास्तव में समता के स्थान पर विभेद और पक्षपात किया जा रहा है। आज तक कोई भी अध्ययन या अनुसंधान ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाल पाया कि प्रवेश परीक्षा के स्तर पर अंग्रेजी का ज्ञान होना भावी प्रशासन के लिए परमावश्यक गुण है। चयन के पश्चात् प्रत्येक चयनित अभ्यार्थी को आधारिक पाठ्यक्रम और प्रशिक्षण दिया जाता है जिसकी अवधि 3 वर्ष होती है। इसके बाद भी वह अनेक विशेषित पाठ्यक्रमों में भाग लेता रहता है और प्रशिक्षण चलता ही रहता है। जब सिविल सेवा अधिकारी केन्द्र की सेवा में आता है, तो यहां राजभाषा हिंदी में काम करने की छूट होती है। सभी जानते हैं कि प्रतियोगी परीक्षाओं में एक-एक अंक के कारण परिणाम में भारी अंतर आ जाता है। इस नए प्रश्न पत्र में 30 अंक तो केवल अंग्रेजी ज्ञान को समर्पित हैं। स्पष्ट है कि इसका लाभ केवल अंग्रेजी वालों को ही मिलेगा। कहने को इस प्रश्न पत्र का स्तर मैट्रिक्युलेशन का होगा किन्तु वास्तविकता यह है कि इस से अंग्रेजी के उच्च ज्ञान की ही जांच होगी।
इस तथाकथित योग्यता या अभिरूचि की परीक्षा में कुछ भी मौलिक नहीं है। इसका प्रयोग गैर सरकारी संस्थाएं और प्रबंधन संस्थान करते हैं। वहीं से यह नकल किया गया है। प्रबंधन प्रशासन का विकल्प नहीं है। यह विचारणीय है कि क्या लोक प्रशासन और निजी उद्योगों का प्रबंधन एक ही है या उनमें भिन्न गुणों की अपेक्षा है। क्या एक कल्याणकारी राज्य के प्रशासक केवल प्रबंधक ही होते है? अंग्रेजी ज्ञान का प्रशासनिक काम काज से क्या रिश्ता ह? ऐसा लगता है यह बदलाव बाजारोन्मुखी नकल किये गये पाठ्यक्रम में चतुराई से छिपाकर अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को जोड़ दिया गया है, जो घोर आपत्तिजनक है। यह परिवर्तन कोचिंग संस्थानों में धन वर्षा के हेतु वरदान होगा, और वे अंग्रेजी वालों के ऋणी रहेंगे।
संघ लोक सेवा आयोग के वार्षिक प्रतिवेदन बताते हैं कि हिंदी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से बहुत बड़ी संख्या में परीक्षार्थी उत्तीर्ण हो रहे है और यह संख्या निरंतर बढ़ रही है। इनकी संख्या अंग्रेजी माध्यम वालों के बराबर पहुंच रही है। प्राप्त सूचना के अनुसार विवरण निम्न प्रकार से है। वर्ष 2006 की मुख्य परीक्षा में हिंदी माध्यम से 3360 अन्य भारतीय भाषाओं से 250 तथा अंग्रेजी माध्यम से 3937 परीक्षार्थी बैठे थे। वर्ष 2007 की मुख्य परीक्षा में हिंदी मााध्यम से 3751 अन्य भारतीय भाषाओं से 318 तथा अंग्रेजी माध्यम से 4815 परीक्षार्थी बैठे थे। वर्ष 2008 की मुख्य परीक्षा में हिंदी माध्यम से 5117 अन्य भारतीय भाषाओं से 381 तथा अंग्रेजी माध्यम से 5822 परीक्षार्थी बैठे थे। ये आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षार्थियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। इसे देखकर भारत में स्थापित मैकाले के मानस पुत्रों ने उपर्युक्त षड़यंत्र रचकर परिवर्तन किया। यह परिवर्तन संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 में समाविष्ट समता के उपबंधों का उलंघन करता है। जो कि भेद भाव पूर्ण है और वर्ग विशेष के लाभ के लिए है। संसद के 18 जनवरी 1968 के संकल्प और उसमें निहित भावना का अतिक्रमण और उपेक्षा करता है। यह एक प्रतिगामी कदम है, जो कोठारी समिति द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक और सामाजिक सिद्धांतों के विपरीत है। यह भारत के नागरिकों की बहुसंख्या को, संघ की सिविल सेवा परीक्षा में सम्मिलित होने और प्रतियोगिता में भाग लेने के अधिकारों से वंचित करता है।
यह परिवर्तन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का हितैषी नया प्रशासक वर्ग तैयार करने के लिए लाया जा रहा है। अंग्रेजी परस्त नौकरशाहों के गलियारों में यह भी कहते सुना गया है कि भारतीय भाषाओं से आने वाले अधिकारी विदेशियों से अंग्रेजी ज्ञान के बिना ठीक से वार्तालाप नहीं कर सकते। इन्हें विदेश सेवा में नहीं लाया जाना चाहिए। हम इस सत्य से मुंह नहीं मोड़ सकते कि भरत में विदेशों से आने वाले राजनायिक या मेहमान अपनी ही भाषा में बोलना प्रसंद करते हैं, अग्रेजी में नहीं। हमें ऐसे दुभाषियों का पैनल तैयार करना चहिए , जो हमारी भाषा ेको सीधे आगंतुक की भाषा में समझा सकें। इस पैनल से नवयुवकों को रोजगार के नये अवसर प्राप्त होंगे और हमारे देश व हमारी भाषा का सम्मान बढ़ेगा।
संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षाओं में इस बदलाव की जड़ें बहुत गहरी हैं। इसकी भूमिका तभी तैयार कर ली गई थी, जब श्री सैमपित्रोदा की अध्यक्षता में गठित ज्ञान आयोग ने देश में पहली कक्षा से अंग्रेजी को पढाने की सिफारिश की, और सरकार ने उसे स्वीकार कर लिया था। अब संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षाओ में अंग्रेजी को अनिवार्य बनाया जा रहा है, ताकि शासन में अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहे और भारतीय भाषाएं केवल बोल चाल की भाषाओं तक ही सिमट कर रह जाएं। ऐसे में हिंदी को पूर्ण राजभाषा बनाए जाने का स्वप्न कभी साकार नहीं होगा?
हिंदी और भारतीय भाषाओं के विरूद्ध षडयंत्र
राजकरण सिंह - 2011-01-09 06:39
संघ लोक सेवा आयोग ने सिविल सेवाओं की प्रारंभिक परीक्षा 2011 के लिए जो नया पाठ्यक्रम घोषित किया है उसमें अंग्रेजी विषय को अनिवार्य बना दिया गया है। अभी तक प्रारंभिक के दो प्रश्न पत्र होते थे। एक था सामान्य ज्ञान का और दूसरा था किसी एक ऐच्छिक विषय का जिसे विद्यार्थी अपनी रूचि के अनुसार चुनता था। नई परीक्षा योजना के अतर्गत अब इस विषय वाले प्रश्न पत्र के स्थान पर 2011 से एक नया प्रश्न पत्र 200 अंकों का होगा, जिसमें से 30 अंक अंग्रेजी समझने की कुशलता के होंगे। हिंदी व भारतीय भाषाओं को इसमें कोई स्थान नहीं होगा।