वाम दल वहां मजबूत हो रहे हैं, इसका पता 1966 के दौरान होने लगा था, जब पश्चिम बंगाल में भयंकर अनाज संकट पैदा हो गया था। उस समय पीसी सेन की सरकार वहां थी। उस सरकार के खिलाफ दो दिनों और कभी तीन दिनों के बंद का भी आहवान कर देते थे और वह सफल हो जाता था। उनके आंदोलन के कारण जब एक साल के बाद सेन सरकार सत्ता से बाहर हुई थी, तो कामरेड खुशी से झूम उठे थे।
लेकिन राजनीति हमेशा सीधी रेखा पर नहीं चलती। उस समय की कुछ घटनाओं को याद करना आज समीचीन होगा, क्योंकि उनकी प्रतिघ्वनि आज भी गूंजती दिखाई पड़ रही है। सच तो यह है कि उनकी प्रतिघ्वनि आज जिस तीव्रता से सुनाई पड़ रही है, उस तीव्रता से उस समय भी सुनाई नहीं पड़ रही थी। उस समय आरंभ में वे सभी एकताबद्ध नहीं थे। एकजुट होकर उन्होंने 1967 का चुनाव नहीं लड़ा था। उन्होंने दो मोर्चे बनाकर चुनाव लड़े थे। एक मोर्चे का नेता सीपीएम थी, तो दूसरे मोर्चे में सीपीआई और एससीयूआई थी।
1977 में उस विभाजन को समाप्त किया गया। एसयूसीआई के अलावा अन्य सभी पार्टियां मिलकर चुनाव लड़ रही थीं, हालांकि अंदर ही अंदर विभाजन बना हुआ था। वह विभाजन आज भी समाप्त नहीं हुआ है। यही कारण है कि विपक्षी तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ सीपीएम अकेली लड़ती दिखाई पड़ रही है। उस लड़ाई में सीपीएम के सहयोगी दलों को देखा नहीं जा रहा है। उसी तरह जब मुख्यमंत्री भट्टाचार्य ने औद्योगीकरण का अभियान चलाया था, तो उस समय भी कोई सहयोगी दल उसके साथ नहीं था। सिंगूर और नंदीग्राम में सीपीएम ने सबकुछ अकेले ही सहा। उसी तरह जब नेताई कांड के बाद सीपीएम जबर्दस्त आलोचना का सामना कर रही है, तो फिर उसके सहयोगी दल उससे किनारा किए हुए हैं।
सच तो यह है कि उद्योगीकरण के अभियान ने वाम मोर्चा के विभाजन को सतह पर ला दिया था। उस समय सीपीआई, फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी ने एक मिनी मोर्चा बना लिया था और वह मोर्चा उद्योगीकरण के उस अभियान का विरोध कर रहा था। उसका विरोध निजी क्षेत्र का तवज्जो देने को लेकर था।
सच कहा जाए तो वाममोर्चा कभी भी आदर्श मोर्चा था ही नहीं। उसके अंदर का मतभेद ज्योति बसु के व्यक्तित्व के सामने छिपा रहता था। जब भी कोई विवाद खड़ा होता था, तो ज्योति बसु सामने आ जाते थे और विवाद उनकी छाया से ढक जाता था। लेकिन उनके बाद वे विवाद लोगों को दिखाई देते रहे। आने वाले चुनाव में वाममोर्चा की हार निश्चित दिखाई दे रही है। उस हार के बाद वामममोर्चा के समाप्त हो जाने की भी पूरी संभावना है, कारण यह है कि मोर्चा उस हार को बर्दाश्त ही नहीं कर सकता।
कम्युनिस्टों की यह गति चिंताजनक है। इसका एक कारण यह है कि आज उनकी विचारधारा को मानने वाले बहुत कम रह गए हैं और उनकी अपील भी लगातार सीमित होती जा रही है। एक समय था, जब कहा जाता था कि वाम विचारधारा के लोग प्रत्येक घरों में देखे जा सकते हैं। कहा जाता था कि सभी घरों में कम से कम एक कामरेड जरूर है। उस समय का पूरा बौद्धिक समाज वामपंथी था। लेकिन अब वैसा नहीं रहा। वाममोर्चा के सत्ता में रहने के दौरान स्थिति बदलती चली गई।
सीपीएम का समर्थन आधार कम हो रहा है। उसका पतन हो रहा है। पर उसका तेवर पहले ही वाला है। उसका तेवर विल्कुल वैसा ही है, जो 1960 में उसके उत्थान के समय में था। उस समय उनकी आक्रामकता उनके क्रांतिकारी स्वरूप का दर्शन कराती थी, लेकिन आज उस प्रकार की आक्रामकता में लोग उनकी गुंडागर्दी देख रहे हैं। (संवाद)
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा मुश्किल में
सीपीएम के सामने असली चुनौती
अमूल्य गांगुली - 2011-01-22 10:42
जिन लोगों ने पश्चिम बंगाल में वाम दलों के 1960 के दशक में हुए उत्थान को देखा है, वह यह देखकर विस्मित होंगे कि उनका पतन भी उसी तरह के कारणों से हो रहा हैं। फर्क यह है कि सिनेमा का रील पीछे की ओर चल रहा है। आगे बढ़ने की जगह कामरेड पीछे की ओर जा रहे हैं। और दोनों परिस्थितियों में उनकी प्रतिक्रिया बिल्कुल एक जैसी है। अपने उत्थान के समय कामरेड लोग हिंसा कर रहे थे, तो अपने पतन काल में भी वे हिंसा में लिप्त हैं। उस समय हिंसा करने से उनकी लोकप्रियता बढ़ रही थी। अब हिंसा करने से उनका समर्थन आधार सिकुड़ता जा रहा है।