अब कर्नाटक का मामला और भी गर्म हो रहा है, क्योंकि वहां के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में मुकदमे की इजाजत भी दे दी है और उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज भी हो गया है। मुकदमा दर्ज होने के बाद उनका इस्तीफा और भी जरूरी हो गया है। इसका कारण यह है कि अब उन्हें अदालत में जाकर अपनी जमानत की अर्जी देनी पड़ेगी। एक मुख्यमंत्री के रूप में अदालत में अपनी जमानत की गुजारिश करना किसी के लिए भी ठीक नहीं है। यही कारण है कि जब उमा भारती को कर्नाटक के की एक कोर्ट में जमानत के लिए हाजिर होना पड़ा था, तो उन्होंने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के पद से पहले इस्तीफा दे दिया था। लालू यादव ने भी बिहार के मुख्यमंत्री के पद से उस समय इस्तीफा दे दिया था, जब उन्हंे चारा घोटाले के एक मुकदमे में अदालत में जमानत के लिए हाजिर होना था।
इस्तीफा देना इसलिए जरूरी हो जाता है कि जमानत मांगते समय एक संभावना इसकी भी होती है कि शायद जमानत याचिका खारिज भी हो जाए। अब यदि मुख्यमंत्री की जमानत याचिका अदालत खारिज कर दे, तो उन्हें अदालत से सीधा जेल जाना पड़ेगा। किसी राज्य का मुख्यमंत्री जेल में हो, यह कोई नहीं चाहेगा। यही कारण है कि किसी राज्य सरकार के मुखिया के लिए अदालत में जमानत की याचिका के साथ जाने के पहले इस्तीफा दे देना अच्छा होता है। इसलिए यदुरप्पा के खिलाफ मुकदमा दर्ज होने के बाद उनका इस्तीफा भी जरूरी हो गया है। यदि वे इस्तीफा नहीं देते हैं और उनकी जमानत याचिका अदालत द्वारा खारिज हो जाती है, तो वे उसी समय से न्यायिक हिरासत यानी जेल में माने जाएंगे। तब यह भारत का पहला उदाहरण होगा कि कोई मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए जेल की हवा खा रहा हो। जब वैसी हालत में राज्यपाल से उस सरकार को बर्खास्त करने की मांग की जा सकती है, जिसका प्रमुख जेल की हवा खा रहा हो। इसे संविधान की व्यवस्था का पतन भी कुछ लोग कह सकते हैं और मुख्यमंत्री उस बिना पर राज्य की सरकार को बर्खास्त करने की मांग भी राष्ट्रपति से कर सकते हैं।
मुकदमा चलने के बाद जमानत याचिका के लिए अदालत में जाने तक का समय भाजपा और यदुरप्पा के पास है। उस समय तक श्री यदुरप्पा मुख्यमंत्री के पद पर बने रह सकते हैं और उनकी पार्टी उनके उत्तराधिकारी का चुनाव कर सकती है। न्यायिक प्रक्रिया का इस्तेमाल कर इस अवधि के अंतराल को लंबा भी किया जा सकता है। भाजपा के पास अरुण जेटली जैसे नेता भी हैं, जो कानूनी दांवपेच जानते हैं और अदालत के सामने जमानत के लिए जाने के दिन को ज्यादा से ज्यादा दूर कैसे रखा जाए, इसकी कोई न कोई तरकीब निकाल ही लेेंगे। पर यदि यदुरप्पा के खिलाफ भाजपा का मोह बना रहा, तो केन्द्र सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चल रहा उसका अभियान अपनी धार खो देगा। सच कहा जाए, तो भाजपा की धार पहले से ही कमजोर हो चुकी है। चूंकि भ्रष्टाचार के मसले पर भाजपा ही नहीं, बल्कि अन्य विपक्षी पार्टियां भी अभियान चला रही है, इसलिए कांग्रेस का काम कठिन हो रहा है। यदि यह भाजपा और कांग्रेस का ही मामला होता, तो फिर केन्द्र सरकार के सामने कोई समस्या ही नहीं थी।
जाहिर है यदुरप्पा भाजपा के गले की हड्डी बन गए हैं। पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री के पद से हटा नहीं पा रही है और उन्हें मुख्यमंत्री के पद पर बनाए रखकर केन्द्र सरकार के खिलाफ अपने अभियान के पैनापन को कम कर रही है। सवाल उठता है कि भाजपा के यदुरप्पा मोह के पीछे का राज क्या है? सच कहा जाए, तो इसे मोह कहना उचित नहीं होगा, बल्कि यह उसकी विवशता भी है। यदुरप्पा खुद मुख्यमंत्री का पद छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। पार्टी राज्य मंे सत्ता में उनके कारण ही आई है। उनके कारण ही उसने विधानसभा में किसी तरह बहुमत का जुगाड़ किया। जब पार्टी के विधायकों ने बगावत की और कुछ निर्दलीय विधायकों ने समर्थन वापस लिया, तो उस समय भी पार्टी की सरकार यदुरप्पा के कारण ही बची। वहां राजनीति पर धनबल का जबर्दस्त असर है। कुछ लोग तो कहते हैं कि कर्नाटक की राजनीति धनबल से जितना प्रभावित है, उतना किसी और भी राज्य की राजनीति नहीं। जाहिर है यदुरप्पा ने अपनी सरकार के गठन में धन का भी अच्छा निवेश कर रखा होगा और भ्रष्टाचार के उनके मामले धन की उगाही से ही जुड़े हुए हैं। इसलिए वे इन मामलों के बावजूद मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा नहीं देना चाहते और भाजपा उनके महत्व का देखते हुए उन्हें उनकी इच्छा के खिलाफ उनके पद से हटाना नहीं चाहती।
कर्नाटक की राजनीति को लेकर भाजपा की एक और भी परेशानी है। वहां अनंतकुमार बीच बीच में मुख्यमंत्री बनने का सपना देखते रहते हैं। यदुरप्पा को हटाए जाने के पहले के अनेक अभियानों में उनकी भूमिका भी रही है। जाहिर है, वे अपने आपको यदुरप्पा के हटाए जाने के बाद राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में देखते हैं। पर वे आजकल यदुरप्पा को मुख्यमंत्री के पद से हटवाकर खुद उनकी कुर्सी पर बैठने के लिए बहुत उत्सुक नहीं हैं। पार्टी भी शायद उन्हें इस समय मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहेगी। इसका कारण यह है कि पीआरओ नीरा राडिया के साथ उनका नाम भी जुड़ा हुआ है। एक बार वे मुख्यमंत्री बने नहीं कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में वे भी लपेटे जाने लगेंगे, क्योंकि नीरा राडिया के साथ उनकी करीबी रिश्ता रहा है और इसके ठोस सबूत हैं कि उन्होंने भी नीरा राडिया के लिए काम किया था। सच तो यह है कि अनंतकुमार के कारण ही नीरा राडिया सत्ता की ऊंची सीढ़ियों पर चढ़ सकी थीं। जब अटलबिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे, तो उस समय नीरा राडिया ने उनसे भी नजदीकी बना ली थी और उसमें सहायता अनंतकुमार ने ही की थी।
इसलिए अनंतकुमार अब खुद वहां के मुख्यमंत्री इस समय बनना नहीं चाहते और यदुरप्पा को हटाकर किसी और को बना देने से वह अपनी गद्दी पर बैठा नहीं रह सकता। हां, यदि यदुरप्पा खुद मुख्यमंत्री के पद से हट जाएं और अपना अधिकारी खुद चुन लें, तब तो यह संभव है, लेकिन इसके लिए भाजपा को यदुरप्पा के निर्णय का इंतजार करना होगा। (संवाद)
कर्नाटक का नाटक: भाजपा का यदुरप्पा मोह
उपेन्द्र प्रसाद - 2013-01-24 11:54
भारतीय जनता पार्टी कर्नाटक की राजनीति में इस तरह फंस गई है कि भ्रष्टाचार के मसले पर वह कांग्रेस के खिलाफ उसकी आलोचना की धार कमजोर दिखाई पड़ती है। देश की वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। जाहिर है सरकार की कमियों को उजागर करने और उसे जनता के सामने जिम्मेदार पार्टी के रूप में पेश आने के लिए विवश करने की मुख्य जिम्मेदारी भी उसी पर है। वह कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा भी संभाले हुए है, लेकिन कनार्टक में उसके अपने ही मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के बड़े मामलों का सामना कर रहे हैं और उनसे जुड़े सवालों का उसके पास कोई जवाब नहीं है।