चुनावी हलचल उस समय दिल्ली भी पहुंच गई, जब मुख्यमंत्री करुणानिधि ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की। उस मुलाकात के बाद यह जाहिर हो गया कि दोनों पार्टियों के बीच बना सात साल पुराना गठबंधन आगे भी जारी रहेगा। दोनों के बीच किसी तरह के टकराव की संभावना का भी निराकरण हो गया। दोनो नेताओं के बीच बातचीत सौहार्दपूर्ण माहौल में हुई। आगे की बातचीत एक समिति करेगी। करुणानिधि की दिल्ली यात्रा के बाद यह भी जाहिर हो गया है कि डीएमके अब कांग्रेस और पीएमके के सामने कमजोर पड़ गई है। पहले की तरह वह गठबंधन की शर्तो को निर्धारित करने में वह सक्षम नहीं है। अब कांग्रेस की ज्यादा चलेगी।
तमिलनाडु का यह चुनाव डीएमके के लिए करो या मरो का सवाल बन गया है। यदि पार्टी फिर जीत कर सत्ता में आती है, तो यह उसकी सरकार की हैट्रिक होगी, जैसा शायद पहले तमिलनाडु की राजनीति में पिछले 4 दशकों में नहीं देखा गया है। करुणानिधि खुद 12वीं बार विधानसभा का चुनाव जीतेंगे, जो एक रिकार्ड होगा। यदि वे मुख्यमंत्री बने, तो छठी बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने का वे एक और रिकार्ड बना रहे होंगे।
तमिलनाडु का चुनाव केन्द्र की राजनीति के लिए भी काफी मायने रखता है। करुणानिधि की पार्टी केन्द्र सरकार का एक प्रमुख हिस्सा है। उसकी हार या जीत का असर केन्द्र सरकार की स्थिरता अथवा अस्थिरता को भी निर्धारित कर सकती है। उस चुनाव का करुणानिधि के परिवार पर भी असर पड़ेगा। उनके दो बेटे और एक बेटी उनकी राजनैतिक विरासत के लिए आपस में लड़ रहे हैं। हार या जीत का असर उनकी आपसी लड़ाई पर भी पड़ेगा। इसके अलावा डीएमके की जीत कुमारी जयललिता की पार्टी को भी प्रभावित किए बिना नहीं रह सकती।
पर करुणानिधि की समस्या यह है कि इस बार उनकी जीत आसान नहीं है। अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए उन्हें अपने चुनावी अंकगणित को सटीक करना होगा। संगठन के इस दौर में अब राजनैतिक केमिस्ट्री से राजनैतिक अंकगणित का महत्व ज्यादा हो गया है। यही कारण है कि डीएके और अन्ना डीएमके कांग्रेस और पीएमके को अपने साथ रखना चाहती हैं।
करुणानिधि अपनी जिंदगी के आखिरी दौर में पहुंच गए हैं। इस दौर में उन्हें राज्य की राजनैतिक चुनौतियों के अलावा अपने परिवार की और से भी चुनौती मिल रही है, जिसका सामना उनको करना पड़ रहा है। पार्टी में उसके कारण विभाजन दिखाई पड़ रहा है। इनके अलावा 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए राजा के खिलाफ की जा रही कार्रवाई ने भी उनकी समस्या बढ़ा दी है।
अब करुणानिधि के सामने एक और समस्या आ रही है। वह समस्या सत्ता की साझेदारी की है। अब तक तो करुणानिधि दूसरी पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ते थे, लेकिन सत्ता खुद उनकी पार्टी के ही हाथ में ही होती थी। पिछले पांच साल से उनकी जो सरकार चल रही है, उसके पास अपनी पार्टी का बहुमत नहीं है। वह सहयोगी दलों के बाहरी समर्थन से चल रही है और सहयोगी दल चाहकर भी सत्ता में भागीदारी नहीं कर पाए, क्योंकि करुणानिधि इसके लिए तैयार नहीं थे। पर नए माहौल में उन्हें अपने दोस्त दलों को भी सत्ता में भागीदारी देनी पड़ सकती है। तमिलनाडु के कांग्रेसी नेता कह रहे हैं कि चुनाव के पहले से ही इस बात की घोषणा होनी चाहिए कि गठबंधन के दल चुनावी जीत के बाद गठबंधन की सरकार बनाएंगे।
डीएमके की कांग्रेस के साथ मोलतोल की ताकत भी अब पहले जैसी नहीं रही। 2 जी स्पेक्ट्रम के घोटाले और उसमें ए राजा की गिरफ्तारी के बाद पार्टी साफ तौर पर कमजोर दिखाई पड़ रही है। इसके बाद तो कांग्रेस अपनी सीटें बढ़ाने की मांग करने लग गई हैं।
2006 के चुनाव में डीएमके ने 132 सीटों पर चुनाव लड़ा था। उनमें से 96 सीटों पर उसकी जीत हुई। कांग्रेस ने 48 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। उनमें 34 जीते। 31 सीटों में 18 पर पीएमके की जीत हुई थी। पिछले दो दशको का तमिलनाडु का इतिहास यही बताता है कि वहां मुकाबला डीएमके और अन्ना डीएमके बीच होता है। दोनों में से जो भी अच्छा गठबंधन बनाता है, जीत उसी की होती है। (संवाद)
तमिलनाडु में कांग्रेस की बल्ले बल्ले
डीएमके साथ मोलतोल की उसकी ताकत बढ़ी
कल्याणी शंकर - 2011-02-04 18:19
तमिलनाडु मे चुनाव की तारीखों की घोषणा अब कभी भी हो सकती है। इस बीच राजनैतिक दलों के बीच चुनावी सरगर्मी बढ़ गई है और सभी दल चुनावों के लिए मोर्चा बनाने और संभालने में जुट गए हैं।