उन्होंने 2008 में अपनी पार्टी का गठन किया था। वे अपनी पार्टी को कांग्रेस और तेलुगू देशम पार्टी का विकल्प बनाना चाहते थे। बहुत जोर-शोर से उन्होंने 2009 का विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़ा। उन्हें लग रहा था कि उन्हें वही सफलता मिलेगी, जो कभी उनके राज्य में एनटी रामाराव को मिली थी। लेकिन वैसा कुछ हुआ नही। उनकी पार्टी को 18 फीसदी मत मिले, लेकिन 294 सीटों वाली विधानसभा में उनकी पार्टी को सिर्फ 18 सीटें ही मिली। लोकसभा में तो उनकी पार्टी को एक सीट भी नहीं मिली थी।

उस हार के बाद चीरू की राजनीति भी कमजोर होने लगी। जो लोग उनके साथ जुड़े थे, वे धीरे धीरे उनको छोड़ने लगे। उनको लगने लगा कि अब अपनी अलग पाटी्र चलाना आसान नहीं। वैसे विधानसभा चुनाव के बाद उनकी पार्टी थी तो विपक्ष में, लेकिन वे विपक्षी तेवर अपना नहीं रहे थे। कांग्रेस के प्रति उनके दिल में नर्म जगह बनी हुई थी और उसका पता उस समय लगा जब पिछले साल 10 मई को वे सोनिया गांधी से मिले। उस बैठक मंे उन्होंने कांग्रेस के समर्थन का भरोसा दिया था। तभी से उनकी पीआरपी और कांग्रेस के विलय की बातें शुरू हो गई थीं।

उसके बाद विलय के हकीकत बनने में 9 महीने का समय लग गया। इस विलय के बाद चिरंजीवी अभी भी राज्य की राजनीति में बने हुए हैं और पार्टी समाप्त करने के बाद भी उन्हें राजनीति से बाहर नहीं जाना पड़ा है। लेकिन उनकी पार्टी के विलय के बाद राज्य में राजनैतिक ताकतों के समीकरण फिर से बनने लगे हैं।

चीरू ने एक राजनीतिज्ञ की तरह बयान देते हुए कहा कि उनकी पार्टी सामाजिक न्याय के मसले पर बनी थी। कांग्रेस भी सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाली पार्टी बन गई है। इस तरह उनके और कांग्रेस के बीच में सामाजिक न्याय की साझा सोच है, लिहाजा उन्होंने अपनी पार्टी के कांग्रेस में विलय का फैसला कर लिया। पर क्या सिर्फ इसी कारण से विलय हुआ अथवा इसके पीछे और भी कारण हैं?

वे भले खुद कुछ नहीं बोल रहे हों, लेकिन यह बात सच है कि राजनीति में मुफ्त में कुछ भी नहीं होता। कांग्रेस और उनके बीच सौदेबाजी की चर्चा है। उसके अनुसार उनकी पार्टी के दो विधायकों को राज्य मंत्रिमंडल में लिया जा सकता है। उनके दो समर्थकों को विधान परिषद का सदस्य भी बनाया जा सकता है। उन्हें खुद राज्य सभा का सदस्य बनाया जा सकता है और केन्द्र में कोई मंत्रालय भी दिया जा सकता है। बाद में 2014 में जब विधानसभा के चुनाव होंगे, तो उन्हें कांग्रेस अपना मुख्यमंत्री दावेदार के रूप में भी जनता के सामने पेश कर सकती है।

यह पैकेज तो उनके लिए है, लेकिन आज कांग्रेस को भी चीरू की जरूरत है। इसका कारण यह है कि 294 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस के पास 154 विधायक हैं। उनमें से 24 जगन मोहन रेड्डी के समर्थक माने जा रहे हैं। यदि उन्होंने जगन के इशारे पर कांग्रेस छोड़ दिया, तो कांग्रेस की सरकार वहां अल्पमत में आ जाएगी। वैसी हालत में चीरू की प्रजा राज्यम पार्टी के 18 विधायक राज्य की कांग्रेस सरकार के काम आएंगे।

यह तो हुई विधानसभा में सरकार बचाने की बात, इसके अलावे भी कांग्रेस को चीरू जैसे लोकप्रिय नेता की जरूरत है। चीरू की पार्टी को विधानसभा चुनाव में 18 फीसदी मत मिले थे। उनमें से अधिकांश उनकी जाति कापू के मत थे। कापू पारंपरिक रूप से कांग्रेस के समर्थक रहे हैं और चीरू के कारण वे कांग्रेस से बाहर जा रहे थे। अब चीरू को कांग्रेस में लाकर पार्टी अपने परंपरागत कापू जनाधार को बचाने में लग गई है। एक आकलन के अनुसार राज्य में कापू सबसे ज्यादा आबादी वाली पार्टी है। वह राज्य की आबादी की 20 फीसदी मानी जाती है। इतनी बड़ी आबादी का समर्थन कांग्रेस चीरू के कारण पा सकती है।

अपनी जाति से बाहर भी चीरू की लोकप्रियता है। वे पूरे आंध्र प्रदेश में लोकप्रिय हैं। राज्य के बाहर भी उनको सुनने देखने के लिए बड़ी भीड़ इकट्ठी होती है। इसलिए आज जब कांग्रेस तेलंगना के मसले पर राज्य में लोगों के गुस्से का सामना कर रही है और लोगों के एक हिस्से का समर्थन खोने का खतरा उठा रही है, तो वैसी स्थिति में चीरू का कांग्रेस का स्टार प्रचारक होना पार्टी के काम आएगा। जाहिर है पीआरपी के कांग्रेस में विलय होने से चीरू और कांग्रेस दोनों को फायदा हैं और इस समय दोनों का एक दूसरे की जरूरत भी है। (संवाद)