मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपने आपको एक अक्षम प्रशासक साबित कर रखा है। न तो केन्द्र सरकार का उनमें कोई भरोसा रह गया है और न ही गोरखा आंदोलन से जुड़े लोग उनमें विश्वास करते हैं। इसके कारण कानून के शासन को नुकसान पहुंच रहा है और उत्तरी बंगाल के पहाड़ी जिलों का भविष्य अनिश्चित हो गया है।
राज्य सरकार के लिए यह सदमे वाली बात थी कि केन्द्र ने यह कहते हुए केन्द्रीय बल भेजने से मना कर दिया कि राज्य की पुलिस पर उसे भरोसा नहीं रहा और उसे लगता है कि बंगाल पुलिस अपना मुख्य काम करने में भी सक्षम नहीं है। राज्य की सरकार के लिए इससे ज्यादा साफ संकेत नहीं हो सकता है। यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि केन्द्र के साथ जो भी उसकी समस्या है उसका वह बातचीत से हल निकाले। लेकिन बुद्धदेव और उनकी सरकार के अन्य मंत्री अपनी इस जिम्मेदारी से मुह चुरा रहे हैं। 2007 से गोरखालैंड का आंदोलन फिर से शुरू हुआ है और तब से ही राज्य सरकार इस मसले पर कोई ठोस नीति नहीं बना पा रही है।
6 फरवरी को भारी हिंसा हुई। उस रोज गोरखा आंदोलनकारी धारा 144 तोड़कर दोआर क्षेत्र में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे। पुलिस ने उन्हें रोकने के लिए लाठी चार्ज किया और उसके बाद भारी हिंसा शुरू हो गई। सवाल उठता है कि पुलिस को पहले से कोई खुफिया सूचना क्यों नहीं मिली कि आंदोलनकारियों के इरादे खतरनाक हैं। सच कहा जाए तो प्रशासन उस पैमाने पर सरकारी संपत्ति के नुकसान की कार्रवाइयों को रोकने की स्थिति में ही नहीं दिखाई दी, क्योंकि उसने उसके लिए पहले से कोई तैयारी ही नहीं की थी।
2007 से ही गोरखा आंदोलन के नेता गैर जिम्मेदारी से पेश आ रहे हैं। उनकी बातें विश्वसनीय नहीं होती और उन्हें दार्जिलिंग के इतिहास तक की जानकारी नहीं है। जब जब वे गांधीवादी रास्ता अपनाने की बात करते हैं, तब तब उनकी तरफ से भारी हिंसा होती है। गोरखा नेता उस हिंसा के लिए स्थानीय लोगों को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। इस बार भी वे यही कर रहे हैं।
इस इलाके की सच्चाई यही है कि भूटिया और लेपचा वहां के मूल निवासी हैं। गोरख और नेपाली वहां बाद में अवैध तरीके से आ धमके। वे लोग भूटान से बाहर निकाले जाने के बाद ही यहां आए। वे भूटान से निकाले गए, क्योकि वे वहां असामाजिक हरकतें कर रहे थे। उत्तरी बंगाल के पहाड़ी जिलों के मूल निवासी लेपचा और भूटिया गोरखालैंड नहीं चाहते। कम्युनिस्टों ने अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए वहां गोरखांे और नेपालियों को अवैध तरीके से लाने में सहायता की। वाम मोर्चा की सरकार उसी कारण से बांग्लादेश के लोगों को भी भारत में घुसने दे रही है और उसके कारण देश की सुरक्षा को भी खतरे में डाल रही है।
कोलकाता स्थित नेपाली विशेषज्ञ इस बात को आश्चर्यजनक मानते हैं कि राज्य की सरकार बिमल गुरंग और उसके गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा को जरूरत से ज्यादा महत्व देती है। सरकार उस संगठन को गोरखों का मुख्य संगठन मानती है और बिमल गुरंग को उनका मुख्य नेता। जबकि सच्चाई कुछ और है। गोरखों के बहुत बड़े हिस्से का गुरंग और उनके संगठन से कोई लेना देना नहीं है। जो गलती राज्य सरकार गुरंग को लेकर कर रही है वही गलती कभी वह सुभाष घिसिंग को लेकर कर रही थी। उस समय बिमल गुरंग सुभाष घिसिंग के गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के के डिपुटी हुआ करते थे। दो दशक तक घिसिंग के मार्फत राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के सैंकड़ो करोड़ रुपए उस इलाके के लिए खर्च हुए, लेकिन स्थानीय लोगों को शायद ही कुछ भी हासिल हो सका। लोग आज पूछ रहे हैं कि वे पैसे कहां गए?
गोरखा आंदोलनकारियों ने अनिश्चितकालीन बंद का आहवान किया है, जबकि स्थानीय लोग उस तरह की कार्रवाइयों से खुश नहीं हैं। उसके कारण वहां की अर्थव्यवस्था पर खराब असर पड़ता है और पर्यटन उद्योग तबाह हो रहा है। लोग पूछ रहे हैं कि सरकार व्यवस्था कायम करने की कोशिश भी क्यो नहीं कर रही है।(संवाद)
भारत
गोरखालैंड आंदोलन हिंसक हुआ
राज्य प्रशासन इसे संभालने में विफल
आशीष बिश्वास - 2011-02-18 10:38
कोलकाताः गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के हिंसक आंदोलन में पिछले दिनों करीब 50 करोड़ रुपए की सरकारी संपत्ति का नुकसान हुआ। उत्तरी बंगाल के पहाड़ी इलाकों में हो रहे इस आंदोलन की हिंसा को रोक पाने में प्रशासन बुरी तरह विफल रहा। इससे पता चलता है कि सरकार किस तरह से आंदोलनकारियों से डरी हुई है।