वैसे पश्चिम बगाल और बिहार घनी आबादी वाले राज्य हैं और उन राज्यों से रेल को काफी राजस्व भी प्राप्त होता है। सच तो यह है कि रेल को सबसे ज्यादा कमाई उन पूर्वी इलाकों से ही होती है। जहां से ज्यादा कमाई होती हो, वहां रेलवे ज्यादा खर्च करे, इसमें तर्क है। जहां रेल सेवाओं की मांग सबसे ज्यादा हो, वहां सेवाओं की ज्यादा आपूर्ति हो, इसमें भी तर्क है। इसलिए यदि बिहार और पश्चिम बंगाल में रेलवे ज्यादा घ्यान देता है, तो इसमें गलत नहीं है। पिछले 15 सालों में बिहार के 3 रेलमंत्री हुए और उस राज्य के लिए अनेक गाड़ियां चलाई गईं। अब यह मौका बंगाल को मिल रहा है।

सवाल उठता है कि जो उदारता रेल बजट में दिखाई गई है, क्या वह आम बजट में भी दिखाई जाएगी? आम बजट का निर्माण करते हुए वित्त मंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती महगाई का सामना करना होना चाहिए। पर क्या वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी महंगाई को देश के सामने की सबसे बड़ी समस्या मानते भी हैं अथवा नहीं? रेल बजट के दिन ही देश का आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया गया। आर्थिक सर्वे़क्षण को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि महंगाई को सरकार बहुत बड़ी समस्या नहीं मानती। उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती विकास दर को बनाए रखने की है। विकास दर को बनाए रखने के लिए वे ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहेगी, जिससे विकास की गति को लगाम लगे। दूसरी तरफ महंगाई को कम करने वाले अनेक उपाय विकास को भी अवरुद्ध करते हैं। प्रधानमंत्री अनेक बार कह चुके हैं कि सरकार महंगाई की समस्या से इस तरह से निबटेगी कि विकास दर प्रभावित नहीं हो।

यानी जो लोग समझतें हैं कि बजट में वित्त मंत्री महंगाई से लड़ते दिखाई पड़ेेगे, उनके निराश होने की संभावना ज्यादा है। महंगाई के खिलाफ संकल्प व्यक्त किए जाएंगे। आंकड़ेबाजी से यह बताने की कोशिश भी की जा सकती है कि महंगाई कम हो रही है, लेकिन जब ठोस कदम उठाने की बात आएगी, तो फिर सरकार कुछ खास करती नहीं दिखाई देगी। आर्थिक सर्वेक्षण में भी सरकार ने यही माना है कि महंगाई कम करने के लिए निर्यात पर रोक जैसे निर्णय अनुत्पादक होते हैं। इसका मतलब है कि सरकार इस तरह के अनुत्पादक निर्णयों को अनीच्छा से ही लेती है, महंगाई हटाने की अपनी लालसा से नहीं।

महंगाई की समस्या से गरीब तबके को निजात दिलाने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून जैसे लॉलीपाप का सहारा लिया जाएगा। पीडीएस के द्वारा रियायती दरों पर गरीब तबकों के लिए अनाज उपलब्ध कराने की बात की जाएगी। पर सवाल उठता है कि क्या पीडीएस अपने उद्देश्य को हासिल करने में सफल है? खुद आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार पीडीएस का माल लोगों तक पूरा पहुंच नहीं पाता। सरकार के अपने आंकड़े के अनुसार 40 फीसदी से 55 फीसदी तक पीडीएस का माल लीक होता है। यानी उतना माल लोगों तक नहीं पहुंच पाता। जब सरकार की व्यवस्था इतनी कमजोर है, तो फिर खाद्य सुरक्षा कानून बनाकर वह लोगों को कैसे राहत पहुंचा पाएगी?

महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून पहले से ही बना हुआ है। उसके द्वारा केन्द्र सरकार अरबों रुपए की आमदनी गरीबों तक पहुंचाने का प्रयास कर रही है। पर उस कार्यक्रम में भी भारी भ्रष्टाचार है। राज्यों के मुख्यमंत्री तक भ्रष्टाचार की बात मानते हैं। खाद्य सुरक्षा कानून की हालत वैसी ही नहीं होगी, इसकी क्या गारंटी है? वैसे भी भारत में कानून उल्लंधन किए जाने के लिए बनते हैं। एक और कानून उल्लंधन के लिए बनेगा। शिक्षा के अधिकार के कानून की हालत हम देख ही रहे हैं। पहले कुछ राज्य सरकारों ने अपने हाथ खड़े करते हुए कहा कि हमारे पास इतने संसाधन नहीं हैं कि हम मुफ्त शिक्षा सुनिश्चित कर सकें। अब निजी स्कूल गरीब बच्चों को दाखिला देने में आनाकानी कर रहे हैं।

यानी सरकार महंगाई को बाजार में नहीं रोकना चाहती है। वह चाहती है कि बाजार में कीमतें अपने हिसाब से तय हों। भले ही कोई बाजार का मेनुपुलेटर अपने हिसाब से कीमतें बढ़ा दे। सरकार बाजार को सट्टेबाजों के हाथों में जाने देने से भी रोकने में परहेज नहीं करना चाहती। बाजार में लूट हो तो हो। उस लूट से गरीब लोगों को बचाने के लिए वह सब्सिडी का सहारा लेना चाहती है और देखा जाता है कि उस सब्सिडी की भी लूट होने लगती है। इस तरह महंगाई को सीधे रोकने में अपनी दिलचस्पी नहीं दिखाकर सरकार दोतरफा लूट का रास्ता तैयार करती है। एक लूट बाजार में, तो दूसरी लूट सरकारी भ्रष्टाचार में।

क्या वित्तमंत्री अपने इस बजट में ऐसा कोई कदम उठाएंगे, जिससे यह लगे कि सरकार इस दुतरफा लूट से देश को बचाना चाहती है? इसकी संभावना बहुत कम है, क्योंकि बजट के पहले पेश आर्थिक सर्वेक्षण में केन्द्र सरकार ने अपनी जो चिंता दिखाई है, वह इस लूट को प्रोत्साहन देने वाली ही है। सर्वेक्षण में दूसरी हरित क्रांति लाने की बात भी की गई है। इस तरह की क्रांति की बात हम पिछले 15 सालों से सुन रहे हैं, लेकिन इस क्रांति के लिए कुछ भी नहीं किया गया। पहली हरित क्रांति देश के पश्चिमी राज्यों मंे लाई गई थी। केन्द्र सरकार ने उन राज्यों की कृषि में भारी निवेश किया गया था। उसका लाभ भी मिला। देश अनाज के मामले में लगभग आत्म निर्भर बन गया था, लेकिन बढ़ती आबादी और अनाज की मांग के कारण अब यह आत्मनिर्भतरता भी चुनौती का सामना कर रही है। इसके कारण दूसरी हरित क्रांति की बातें की जा रही है। यह क्रांति देश के पूर्वी राज्यों मे ही अब हो सकती है, जहां कृषि की उत्पादकता अभी भी बहुत कम है। लेकिन उन पूर्वी इलाकों में हरित क्रांति लाने के लिए जमीनी काम न तो हुआ है और न ही हो रहा है। इसलिए दूसरी हरित क्रांति की बात सिर्फ कहने के लिए है करने के लिए नहीं।

पांच राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं। जाहिर है वित्त मंत्री पर उन चुनावों का दबाव भी होना चाहिए और अपनी पार्टी को लोकप्रिय बनाने के लिए वे कुछ लोकप्रियतावादी घोषणाएं भी कर सकते हैं, पर देखना दिलचस्प होगा कि वे महंगाई को थामने के लिए क्या कदम उठाते हैं? (संवाद)