आरोप के अनुसार भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन या इसरो द्वारा दुर्लभ एस बैंड स्पेक्ट्रम को देवास मल्टीमीडिया कंपनी को देने से करीब 2 लाख करोड़ का नुकसान हुआ। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले का अनुमानित आकार 1.76 लाख करोड़ रुपया माना गया है। इस आकलन के अनुसार यह अब तक सामने आए सबसे बड़े लूट का मामला बन जाता है। सौदा रद्द करने के पीछे सरकार की सोच यही होगी कि इसके साथ अनियमिततायें या घाटा का प्रश्न ही समाप्त हो जाएगा। किंतु यह इस पूरे मामले का बिल्कुल सतही मूल्यांकन है। आप एक सौदा रद्द कर दीजिए, कल दूसरा सामने आ जाएगा और देवास जैसी कंपनी स्वयं को सही साबित करने तथा लड़ने पर उतारू है तो यूोंहि मामला कानूनी पचड़े में फंस जाएगा। इसलिए भ्रष्टाचार और उसके खिलाफ कार्रवाई के सामान्य दायरे में इसका विचार करना उपयुक्त नहीं है। पूरे मामले को इसके व्यापक भयावह परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।

सबसे पहले तो इसरो जैसे संगठन के चरित्र पर भ्रष्टाचार का दाग लगना ही असाधारण स्थिति है। इसरो की वाणिज्यिक शाखा एंट्रिक्स और देवास मल्टीमीडिया के बीच 2005 में जो करार हुआ था उसके अनुसार एंट्रिक्स को दो उपग्रहों का निर्माण देवास के लिए करना था। इसने एक ट्रांसपोंडर 20 वर्षों के लिए 1000 करोड़ रुपए में किराये पर लिया। इसमें देवास को 20 वर्षों तक दुर्लभ एस बैंड स्पेकट्रम के 2500 मेगाहटर््ज में से 70 मेगाहर्ट्ज का उपयोग करने का अधिकार मिल गया। क्योें? पिछले साल इस स्पेक्ट्रम के मात्र 15 मेगाहटर््ज बेंचने से 68 हजार करोड़ रुपया मिला था। एस बैंड स्पेक्ट्रम ऐसी रेडियो तरंगें हैं जिनको 2.5 मेगाहटर््ज बैंड भी कहा जाता है। यह बैंड व्यावसायिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इन तरंगों का उपयोग संचार उपग्रहों, मौसम संबंधी राडार और जलयान के राडारों द्वारा किया जाता है। इसका उपयोग चौथी पीढ़ी यानी 4 जी की मोबाइल सेवाआंे के लिए किया जाता है। देवास के संस्थापक इसरो के ही पूर्व वैज्ञानिक डॉ. एम. जी. चन्द्रषेखर हैं। देवास भारत में मोबाइल सहित सभी प्लेटफार्म पर सेटेलाइट और टेरेटेरियल नेटवर्क के जरिए ब्रॉडबैंड सेवा शुरु करने की तैयारी कर रही है। उसके अनुसार वह इसका इस्तेमाल पूरे देश में डाटा आपूर्ति करने तथा ग्रामीण क्षेत्र में दूरसंचार सेवा के प्रसार के लिए करेगी। देवास के साथ करार करने के पूर्व निविदा जारी न होने के बारे में उसका जवाब है कि उसने कोई सरकारी संसाधन खरीदा नहीं है, सिर्फ प्रयोग के आधार पर ट्रांसपोंडर किराये पर लिया है। उसके अनुसार जिस तकनीक का वह उपयोग कर रही है, वह नई है, इसलिए निविदा या अन्य को अवसर मिलने का प्रश्न ही पैदा नहीे होता।

तो कुल मिलाकर देवास इस समूचे बवण्डर केे बीच अड़ी हुई है। इसरो भी मामले की समीक्षा कर रही है, कैग भी जांच कर रही है और मामले का न्यायालय मंे जाना तय हो चुका है, इसलिए बिल्कुल निश्चयात्मक प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता नहीं। बावजूद इसके कंपनी के स्पष्टीकरण से ही कुछ बातें निकलती है। एक, डॉ. एम.जी. चन्द्रशेखर को तकनीक सहित सारी चीजों का ज्ञान था और उनके संपर्क भी विभागों में थे। इसलिए यह मानने में कोई समस्या नहीं है कि उनको अपने पूर्व ओहदे का लाभ मिला। ज्यादा संभावना तो इसी बात की है कि स्पेक्ट्रम तकनीक और इसकी वाणिज्यिक संभावनाओं को देखते हुए ही उन्होंने कंपनी बनाई। इन दो पहलुओं का तो कोई कानूनसम्मत मान्य साक्ष्य नहीं दिया जा सकता। प्रश्न यह भी है कि क्या कोई दूसरा व्यक्ति उनकी जगह होता तो उसके साथ इसरो ऐसा ही व्यवहार करता? ध्यान रखने की बात यह भी है कि 2008 में जर्मन कंपनी डॉयचे टेलिकॉम ने देवास में 17 फीसदी हिस्सेदारी 7.5 करोड़ में लिया है। कोई विदेषी कंपनी बिना भविष्य का आकलन किए प्रयोग की संभावित कल्पना पर एक कंपनी में धन नहीं लगा सकती। प्रायोगिक तौर पर ट्रांसपोंडर किराये पर लिए जाने का अर्थ भी कंपनी देश को बताए। इसरो ने अगर अपनी व्यावसायिक कार्यप्रणाली में सुधार का कदम उठाना आरंभ किया है, एंट्रिक्स को रखा जाए या नहीं यहां तक विचार हो रहा है तो जाहिर है, उसके अंदर भी यह मान लिया गया है कि कुछ गड़बड़ियां हुईं हैं। मामले का सामान्य विश्लेषण भी साफ कर देता है कि इसमें देश के साथ धोखाधड़ी हुई। बावजूद इसके देवास का अड़ियल रवैया हैरान करने वाला है।

निस्संदेह, यह देश के भविष्य की दृष्टि से अत्यंत ही चिंताजनक है। कानूनी तौर पर इस मामले का आधार चाहे जो हो, इसमें अपने ज्ञान, प्रभाव और पहुंच का व्यावसायिक लाभ उठाने का पहलू बिल्कुल साफ है। किसी सामान्य माहौल वाले देश में ऐसी कंपनी कभी भी सीनाजोरी पर नहीं उतरती। जाहिर है वर्तमान व्यवस्था मंे नैतिकता अनैतिकता के बीच की मर्यादा प्रभुत्व वर्ग के लिए समाप्त हो चुकी है। आप देश को चाहे जितना धोखा दीजिए, नियमों-कानूनों की खांच से स्वयं को सही साबित करते रहिए। इससे पता चलता है कि हमारा देश किस अवस्था में पहुंच चुका है और भ्रष्टाचार से लड़ना कितना कठिन हो गया है। सतही तौर भी विचार करें तो यह इसलिए सामान्य मामला नहीं है, क्यांेकि इसके केन्द्र पर एक वैज्ञानिक खड़ा दिख रहा है जिसके बारे में आम धारणा यही है कि वह अपनी प्रतिभा, परिश्रम से राष्ट्र को उन्नति के शिखर पर ले जाने में योगदान देगा।

देवास द्वारा सौदे में अनियमितता न होने का दावा स्वीकारने योग्य नहीं लगता, किंतु इसे कुछ क्षण के लिए मान लिया जाए तब भी इसे भ्रष्टाचार का मामला मानना होगा। मसलन, कंपनी अपनी तकनीक कोे बिल्कुल नई बता रही है। साफ है कि इसरो के वैज्ञानिक होने के नाते चन्द्रशेखर को इसका ज्ञान था, लेकिन इसरो में रहकर काम करने की जगह उन्होंने कंपनी बनाकर इससे अधिकाधिक धन कमाने का अपकर्म किया। यह भ्रष्टाचार नहीं तो क्या सदाचार है? देश के साथ धोखा नही ंतो क्या ईमानदारी है? क्या यह नैतिकता है? वास्तव में इस घोटाले से सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह खड़ा हुआ है कि आखिर किसी वैज्ञानिक के अंदर देश की सेवा करने की बजाय अपने ज्ञान के व्यावसायिक उपयोग और अधिक से अधिक रुपया बनाने की कामना क्यों पैदा हुई? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना इसलिए अपरिहार्य है क्योंकि इसके बिना भ्रष्टाचार का इलाज संभव नहीं। चन्द्रशेखर अकेले ऐसा करने वाले शख्स नहीं हैं। न जाने कितने ऐसे ओहदे पर बैठे लोग, जिन पर देश की नियति संवारने का दायित्व है, अपने ज्ञान और प्रभाव का उपयोग केवल और केवल धन पैदा करने के लिए कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इस नाते वे अपनी शक्ति का इस्तेमाल देश को जोंक की तरह चूसने या डाकू की तरह लूटने में कर रहे हैं। अगर इनके अंदर अपने दायित्व के प्रति ईमानदार रहने की स्वाभाविक प्रेरणा की जगह बेईमान बनने की अनैतिक कामना पैदा हो रही है तो इसका कोई साधारण या छोटा कारण नही हो सकता। यह केवल कानूनी कार्रवाइयों से दूर भी नहीं हो सकता। (संवाद)