उस समस्या की गूंज संसद में भी उठी। जब राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का भाषण समाप्त हुआ और उसमें तेलंगाना का कोई जिक्र नहीं आया, तो अलग राज्य के समर्थक सांसद बिफर पड़े। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी द्वारा भाषण के अंग्रेजी अनुवाद के पड़ने के पहले ही संसद में हंगामा होने लगा था।
तेलंगाना क्षेत्र से आने वाले सभी पार्टियों के सांसदों ने टीआरएस के नेता के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में बजट पेश होने के बाद भी संसद को बाघित करना जारी रखा। हालांकि प्रधानमंत्री ने हस्तक्षेप कर कांग्रेस सांसदों को संभालने में यफलता पाई, लेकिन समस्या अपनी जगह पर पहल की तरह ही बनी हुई है। कांग्रेस के सांसद भले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सुन लें, लेकिन तेलंगाना की जनता उनकी नहीं सुनने वाली।
कांग्रेस ने अपने सांसदों को अपनी समस्या बताई, लेकिन भाजपा ने केन्द्र सरकार का काम कठिन कर दिया है। उसने केन्द्र सरकार को ताना मारते हुए कहा कि अलग तेलांगाना राज्य के लिए वे संसद में विधेयक लाए। से चंद्रशेखर राव को भाजपा का मिल रहा समर्थन केन्द्र सरकार की समस्या को और भी बढ़ा रहा है।
राज्य सरकार का तो कामकाज भी प्रभावित हो रहा है। उसके कर्मचारियों को वेतन मिलने क लाले पड़े हुए हैं, क्योंकि राज्य सरकार के ठप होने के कारण वेतन भुगतान की व्यवस्था तक लड़खड़ा रही है। इसका कारण यह है कि राज्य सरकार के अंदर तेलंगाना समर्थक लोग असहयोग कर रहे हैं और पूरा सचिवालय को जैसे लकवा मार गया है।
सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि तेलंगाना संयुक्त संघर्ष समिति और और टीआरएस ने हैदराबाद चलो का नारा दिया है। उसके लिए भारी पैमाने पर तैयारियां हो रही हैं। चारों तरफ से हैदराबाद में लोगों का भारी जमावड़ा की योजना बनाई जा रही है। जब भी इस तरह की राजनैतिक कार्रवाई होती है, तो समाज के असामाजिक तत्व इसमें घुसकर अराजकात फैलाने लगते हैं। उसी अराजकता का खतरा राज्य के सामने मंडरा रहा है। इस खतरे के कारण आयोजको ने फिलहाल हैदराबाद चलो के नारे पर अमल को टाल दिया है।
एक अलग स्तर पर अलग राज्य के समर्थक युवाओं और छात्रों को गोलबंद कर रहे हैं। संघर्ष समिति ने ओस्मानिया विश्वविद्यालय के एक लाख छात्रों को इस काम के लिए गोलबंद करने का ल़क्ष्य रखा है। आंदोलनकारी अपनी मांग को किसी भी हालत में कमजोर नहीं देखना चाहते हैं और वे अलग तेलंगाना राज्य से कम पर तैयार होने को राजी नहीं है। वे अपने आंदोलन में कांग्रेसी सांसदों और विधायकों को भी शामिल करने की योजना बने रहे हैं। वकीलों और शिक्षकों को भी इसमें शामिल कर लिया गया है। वार्षिक परीक्षाएं मार्च महीने मे ही होती हैं। इसके कारण छात्रों के सामने सत्र पूरा करने की भी समस्या पैदा हो सकती है।
कांग्रेस का आलाकमान फिलहाल कांग्रेसी सांसदों को मनाने में सफल हो गया है, लेकिन उसकी यह सफलता टिकाऊ नहीं है। बजट का वास्ता देकर उन सांसदों को शांत किया था। एक बार बजट की सभी औपचररिकताएं पूरी हो जाएं, उसके बाद तेलंगाना क्षेत्र के सांसद फिर आंदोलनकारी मूड प्राप्त लेंगे। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने फिलहाल उन्हें यह कहकर शांत कर रखा है कि अलग तेलंगाना राज्य का अघ्याय अभी बंद नहीं हुआ है।
कांग्रेसी सांसद आंध्र प्रदेश की गड़बड़ियों के लिए पी चिदंबरम और राज्य के राज्यपाल श्री नरसिंहन को जिम्मेदार बता रहे हैं। उनका कहना है कि चिदंबरम ने सारी गड़बड़िया शुरू करवाईं। उन्होनंे श्रीकृष्णा आयोग पर सर्वदलीय बैठक की घोषणा कर दी। उसकी तिथि भी घोषित कर दी, लेकिन उसके साथ ही जानबूझकर ऐसा माहौल बना दिया कि सर्वदलीय बैठक हो ही नहीं सकी। पी चिदंबरम की सर्वदलीय बैठक बुलाने में मिली विफलता को वे वर्तमान गड़बड़ियों के लिए जिम्मेदार बता रहे है।
चिदंबरम के अलावा वे राज्य के राज्यपाल के खिलाफ भी बोल रहे हैं। उनका कहना है कि राज्यपाल राज्य की स्थिति के बारे में केंन्द्र को लगतार गुमराह कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि केन्द्र सरकार राज्यपाल को अविलंब बदल दें। उनके बदलने की मांग के पीछे एक कारण राज्य में राष्ट्रपति शासन की आशंका भी है। राष्ट्रपति शासन में राज्यपाल के हाथ में राज्य की सत्ता आ जाती है। कांग्रेसी सांसद चाहते हैं कि वैसी स्थिति आने के पहले वर्तमान राज्यपाल को वहां से हटा दिया जाए।
विडंबना यह है कि टीडीपी अलग तेलंगाना राज्य के मसले पर अपना रुख एक बार फिर बदल सकती है। आंदोलन तेज होते देख वह अलग राज्य के समर्थन में उतर सकती है और बजट सत्र के दौरान ही वह केन्द्र सरकार से माग कर सकती है कि वह अलग तेलंगाना राज्य के लिए संसद में विधेयक लाए। (संवाद)
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तेलंगाना मसले पर संकट में है कांग्रेस
केन्द्र के पास समस्या का कोई समाधान नहीं
कल्याणी शंकर - 2011-03-04 09:05
आंध्र प्रदेश में स्थानीय स्तर पर तेलंगालना का आंदोलन भड़क उठा है। न तो राज्य सरकार और न ही केन्द्र सरकार को यह सूझ रहा है कि आंदोलन की इस आग को बुझाने के लिए वह क्या करे। लेकिन केन्द्र के लिए इस आंदोलन की उपेक्षा करना भारी जाखिम भरा काम होगा। गौरतलब है कि 1950 के दशक में हम आंध्र और तेलंगाना के मसले पर दो बड़े आंदोलन देख चुके हैं। राज्य में एक समस्या किरण रेड्डी की सरकार के अपरपिक्व होने की है। वह सरकार इस तरह की समस्या को कैसे हल कर पाएगी, इसके बारे में किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा है।