दरअसल शुरू से ही अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों का रवैया गैर जिम्मेदाराना रहा है। वहां संकट शुरू होते ही उन्होंने उसे गंभीर से गंभीरतर बनाने की कोशिश की। लीबिया का वर्तमान संकट शुरू होने के पहले उसके दो पड़ोसी देशों के शासक जन विद्रोह के दबाव में सत्ता छोड़कर भाग चुके थे। ट्यशिया लीबिया के पश्चिम और उत्तर में स्थित है। वहां के शासक बेन अली सबसे पहले क्रांति का शिकार बने। आंदोलन के दबाव में उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ी। उसके बाद लीबिया के पूर्व में स्थित मिश्र में तख्ता पलट हुई। वहां के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक भी आंदोलन का सामना नहीं कर सके और सत्ता छोड़कर भाग खडे़ हुए।

मिश्र और ट्यूनिशिया में अमेरिकी परस्त सरकार थी। दोनों देशों के तानाशाहों को अमेरिका का संरक्षण प्राप्त था। वहां का जन आंदोलन उनके शासकों के ही नहीं, बल्कि अमेरिका के भी खिलाफ था। जाहिर है, उन देशों में अमेरिकी नीतियों की हार हुई थी। यह दूसरी बात है कि अपनी हार को छिपाने को लिए अमेरिका आंदोलन के पक्ष में बयानबाजी करने लगा था।

दो देशों के तानाशाहों के हटने के बाद अन्य देशों के तानाशाहों के खिलाफ भी आवाज उठने लगी। अधिकांश तानाशाहों को लंबे अरसे से अमेरिका का संरक्षण हासिल था। लीबिया में भी व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन होने लगे। लीबिया कभी अमेरिका परस्त देश नहीं रहा है। उसके संबंध उससे खराब रहे हैं और इसके लिए वह अमेरिका के कोपभाजन का शिकार भी रहा है। हांष् पिछले कुछ सालों से वहां के शासक कर्नल गद्दाफी ने अमेरिका से अपने और अपने देश के रिश्ते अच्छे करने शुरू कर दिए थे। इराके मं जब अमेरिका सद्दाम के खिलाफ कार्रवाई कर रहा था, उस समय लीबिया ने यह स्वीकार किया था कि उसके पास रासायनिक हथियारों का एक बड़ा जखीरा है। उसने विश्व समुदाय को अपने उस जखीरे के निरीक्षण करने और उसे समाप्त करने का आमंत्रण भी दे डाला था। कर्नल गद्दाफी को आभास हो रहा था कि इराक के बाद अमेरिका लीबिया को निशाना बना सकता है और इसके लिए उसके पास जमा रासायनिक हथियारों को बहाना बना सकता है। अमेरिका उस दिशा में आगे कुछ करता, उसके पहले ही कर्नल गद्दाफी ने रासायनिक हथियारो के जखीरे की समाप्ति का आमंत्रण विश्व समुदाय को दे डाला। इस तरह अमेरिका की तरफ से किसी कार्रवाई की आशंका को समय के पहले ही निरस्त कर डाला। उसके बाद अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों के साथ उसके रिश्ते सामान्य होने लगे।

इसके बावजूद कर्नल गद्दाफी की गिनती कभी भी अमेरिकी परस्त राजनेता के रूप में नहीं हुई। वे एक दार्शनिक नेता हैं, जिनका अपना एक अलग राजनैतिक दर्शन है। उसी दर्शन के साथ लीबिया की सरकार चलती है। उनका वह दर्शन उनके ग्रीन बुक पर आधारित है। लीबिया एक ऐसा देश है जिसका अपना कोई संविधान भी नहीं है। कर्नल गद्दाफी की ग्रीन बुक को ही संविधान माना जा सकता है और उसी ग्रीन बुक के दर्शन के तहत कर्नल बिना किसी पद पर होते हुए लीबिया के शासक बने हुए हैं। उनका पदनाम कर्नल है, लेकिन लीबिया की सेना के वे सुप्रीम कमांडर हैं। किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि कर्नल जैसे छोटे पर के साथ कोई पूरी सेना का प्रमुख कैसे हो सकता है, लेकिन लीबिया में वह असभंव संभव बना हुआ है। जब वहां संकट शुरू हुआ था, तो पश्चिमी देश के नेता कहने लगे थे कि गद्दाफी को अपना पद छोड़ देना चाहिए। गद्दाफी ने कहा कि उनके पास कोई पद ही नहीं है, फिर वे अपना कौन सा पद छोड़ें। वे अपने को 41 साल पहले हुई एक क्रांति का नेता मानते हैं और वे मरते दम तक लीबियन क्रांति का नेता बने रहेंगे।

उनके इस जवाब पर पश्चिमी देशों के नेता लाजवाब हो गए। उसके बाद वे गद्दाफी से पद छोड़ने की मांग करने के बदले देश छोड़ने की मांग करने लगे। यह मांग विचित्र है। जब कोई व्यक्ति यह कह रहा हो कि वह अपने ही देश में मरते दम तक रहेगा, उसे देश निकाले की सजा देने वाला विदेशी कौन होता है? लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन को जल्दी पड़ी थी। ब्रिटेन के विदेश मंत्री ने तो यहां तक कह डाला कि गद्दाफी लीबिया छोड़ चुके हैं और वेनेजुएला की ओर भाग रहे हैं। वेनेजुएला के प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि गद्दाफी लीबिया में ही हैं और वेनेजुएला आने का उनका कोई इरादा नहीं है। कुछ दिनों के बाद मीडिया में यह बात फेलाई गई कि गद्दाफी लीबिया छोड़कर निकारागुआ भाग गए है। निकारागुआ के राष्ट्रपति ने इसका खंडन कर दिया।

यदि मीडिया द्वारा जारी खबरों को देखा जाए, तो उसका जोर लीबिया में विद्रोह को भड़काना ही रहा है। अनेक प्रकार की गलत खबरें मीडिया में आती रहीं और कुछ समय के बाद उनमे ंसे कुछ का खंडन भी होता रहा। गलत खबरें छपवाकर विश्व की कुछ शक्तियां वहां के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के लिए माहौल तैयार कर रही थीं। अमेरिका ने तो लीबिया के पास अपनी सेना को भी तैनात कर डाला है। उसने संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लीबिया के खिलाफ प्रतिबंध भी लगवा डाला है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा लीबिया के खिलाफ सैनिक कार्रवाई का प्रस्ताव पारित करवाने में अमेरिका विफल रहा, क्योकि चीन और रूस ने उसका विरोध किया।

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लीबिया के खिलाफ सैनिक हस्तक्षेप का प्रस्ताव पारित कराने में विफल अमेरिका ने नाटों द्वारा सैनिक कार्रवाई के प्रस्ताव पारित करवाने की कोशिश की। ब्रिटेन उसके साथ था, लेकिन इटली को वह प्रस्ताव पसंद नहीं आया। इसका कारण यह है कि इटली के लीबिया के साथ ऐतिहासिक रिश्ता रहा है। लीबिया कभी इटली की कालॉनी हुआ करता था। इटली का लीबिया के साथ घनिष्ठ आर्थिक रिश्ता भी रहा है। वहां उसका भारी निवेश है। यदि लीबिया तबाह हुआ, तो इटली भी तबाह हो जाएगा। इसलिए इटली कर्नल गद्दाफी को सत्ता से बाहर तो देखना चाहता है, लेकिन वह नहीं चाहता कि वैसा करने के लिए लीबिया को ही तबाह कर दिया जाए, क्योंकि लीबिया की तबाही में इटली की भी तबाही छिपी हुई है।

यदि अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों ने लीबिया के खिलाफ मनोवैज्ञानिक अभियान नहीं चलाया होता, तो वर्तमान नौबत नहीं आती। आज वहां जो गृहयुद्ध की जो स्थिति बन रही है, वह आज नहीं बनती। दुनिया को जो तेल कीमतो की झटके लग रहे हैं, वे भी नहीं लगते। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे आगे जिम्मेदारी से काम करेंगे और किसी प्रकार की क्रांति को वहां निर्यात करने की कोशिश नहीं करेंगे। यदि वहां की जनता गद्दाफी को नहीं चाहती, तो गद्दाफी वहां बने भी नहीं रह सकते। लेकिन अमेरिका अथवा किसी अन्य देश को लीबिया के मामले में हस्तक्षेप बंद कर देना चाहिए। (संवाद)