पिछले कुछ दिनों मे वाम मोर्चा की स्थिति कुछ बेहतर हुई है। ऐसा खुद वाम मोर्चा के नेता महसूस कर रहे हैं। लेकिन राज्य में लोगों का मूड बदलाव का है, यह साफ देखा जा सकता है। इसलिए सरकार बदलने की संभावना से कोई भी इनकार नहीं कर रहा।
वाम मोर्चा की हार के बाद कांग्रेस 34 साल बाद राज्य की सत्ता में वापस आएगी, हालांकि उसकी वापसी अपने दम पर नहीं होगी। ममता बनर्जी की पार्टी की जूनियर पार्टनर बनकर ही वह सत्ता में आ रही है। फिर भी उसे सत्ता में आने का संतोष तो होगा ही। 1977 में वह राज्य की सत्ता से बाहर हो गई थी। उसके बाद से ही वह विपक्ष में है। तमिलनाडु में भी वह 44 साल के बाद सत्ता में आने की उम्मीद कर रही है। यदि वहां डीएमके के नेतृत्व वाला मोर्चा सत्ता में आया, तो वहां भी कांग्रेस सत्ता में आ सकती है। हालांकि डीएमके ने वहां इस तरह की कोई घोषणा नहीं की है।
तृणमूल के साथ काग्रेस का सीटों के बंटवारे पर बातचीत जारी है। सीटों के बंटवारे के मामले मे ममता बनर्जी मजबूत स्थिति में है। जिस तरह कांग्रेस ने तमिलनाडु में डीएमके को अपनी शर्तो को मानने को मजबूर कर दिया, उस तरह से वह ममता बनर्जी को मजबूर नहीं कर सकती। लेकिन फिर भी कांग्रेस चाहेगी कि उसे ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल हों, ताकि आने वाले दिनों में सरकार में ममता की मनमानी नहीं चल सके।
दूसरी तरफ ममता बनर्जी खुद अपनी पार्टी की सदस्य संख्या के आधार पर बहुमत पाना चाहेगंी। इसलिए उसकी कोशिश होगी कि वह ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े। पिछले स्थानीय निकायों के चुनावों में ममता बनर्जी की पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ा था और वाम मोर्चा को पराजित भी कर दिया था। इसके कारण कांग्रेस को भी पता है कि राज्य में असली ताकत किसके पास है। उसको आधार बनाकर ममता बनर्जी गठबंधन को बरकरार रखते हुए भी खुद की पार्टी के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटें सुनिश्चित करना चाहेंगी।
ममता यह तो चाहेंगी कि अपनी पार्टी की सदस्य संख्या के बल पर वह विधनसभा में बहुमत प्राप्त करें, पर वह कांग्रेस को भी अपने साथ सरकार में रखना चाहेंगी। वैसा करते समय वह कम महत्वपूर्ण मंत्रालय अपनी सहयोगी पार्टी को देना चाहेगी। कांग्रेस पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए वह कुछ छोटी छोटी पार्टियों को भी मिला कर रखना चाहेगी। ये पार्टियां है कामता पार्टी, आदिवारी मुक्ति मोर्चा और गोरखा मुक्ति मोर्चा। ममता बनर्जी ने अपना राजनैतिक अंकगणित मजबूत कर रखा है। वाम मोर्चा उस पर आरोप लगा रहा है कि माओवादियों के साथ उसका गुप्त समझौता है। इस आरोप में सचाई हो अथवा न हो, लेकिन यदि माओवादियों ने खुराफात नहीं की तो चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो जाएंगे।
ममता का कांग्रेस के साथ सीटों के बंटवारे के लिए बातचीत चल रही है। दोनों ओर से कड़ी सौदेबाजी हो रही है। कांग्रेस की ओर से खुद प्रणब मुखर्जी ने कमान संभाल रखी है। प्रणब मुखर्जी के साथ साथ अहमद पटेल भी बातचीत में शामिल हैं, लेकिन किसी और नेता को बातचीत में नहीं शामिल किया जा रहा है। राहुल गांधी तक इससे अलग हैं। बंगाल सहित अन्य राज्यों के चुनावों में इस बार चुनाव प्रचार के केन्द्र में राहुल को रखा भी नहीं जा रहा है। इसका कारण बिहार में मिली कांग्रेस की करारी है। राहुल ने वहां चुनाव की बागडोर अपने हाथ में संभाल रखी थी और पार्टी का सूफड़ा साफ हो गया। उसके बाद राहुल गांधी की बहुत किरकिरी हुई। अब कांग्रेस बिहार की गलती को नहीं दुहराना चाहती है। (संवाद)
भारत
वाम मोर्चा के हाथ से निकल जाएगा बंगाल
ममता और कांग्रेस जीत के प्रति आश्वस्त
कल्याणी शंकर - 2011-03-11 11:18
इस बार पश्चिम बंगाल के चुनाव में रिकार्ड टूटने वाला है। राजनैतिक पंडितों का मानना है कि वहां विधानसभा के आम चुनाव में ममता और कांग्रेस का गठबंधन जीत हासिल करेगा और पिछले 34 साल से चला आ रहा वाम मोर्चा का शासन समाप्त हो जाएगा। वाम मोर्चा अपनी जीत के प्रति नाउम्मीद है और ज्यादा से ज्यादा वह विधानसभा के त्रिशंकु होने की कामना कर सकता है। यदि विधानसभा त्रिशंकु हो गई तो भी उनकी इज्जत बच जाएगी। दूसरी तरफ ममता बनर्जी और उनकी सहयोगी कांग्रेस को लग रहा है कि वहां जीत उनकी जेब में है।