ईमानदार माने जाने वाले प्रधानमंत्री को इस तरह से बार बार फजीहत का सामना करना पड़ रहा है। यह उनके लिए निश्चय ही बहुत बड़ी त्रासदी है। उन्हें देश की सबसे ज्यादा भ्रष्ट सरकार का मुखिया तो पहले से ही कहा जा रहा था, अब तो उन्हें भ्रष्टाचार के बूते बची सरकार का मुखिया भी कहा जाने लगा है। हालांकि जिस लोकसभा की अवधि में वह विश्वासमत हासिल किया गया था और कथित रूप से सांसदों को घूस देकर सरकार को बचाया गया था, उस लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो चुका है और उसके बाद हुए चुनाव में मनमोहन सिंह की पार्टी और मोर्चे को पहले से ज्यादा सीटें हासिल हो चुकी हैं, लेकिन फिर भी यदि आरोप लगे हैं, तो जवाब देना ही होगा, भले वह मामला पुराना पड़ गया हो।

नरसिंह राव सरकार के दौरान झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को घूस देकर सरकार बचाने का मामला सामने आया था। उस समय जनता दल के कुछ सांसदों को भी घूस देने का मामला सामना आया था। झामुमो के सांसदों के खिलाफ तो मुकदमा भी चला था। पर वे सांसद मुकदमे में बरी हो गए थे। अदालत ने तब यह कहकर उन सांसदों को आरोप मुक्त कर दिया था कि संसद के अंदर वे जो कुछ भी करते हैं, उसके बारे में अदालतें कुछ भी नहीं कर सकतीं। संसद खुद उसके बारे में निर्णय लेने मे सक्षम है। जाहिर है कि वे सांसद तकनीकी आधार पर ही मुकदमा जीते थे। हां, उसी मामले में तब के प्रधानमंत्री नरसिंह राव के खिलाफ मुकदमा जरूर शुरू हो गया था। उसमें ट्रायल कोर्ट ने तो नरसिंह राव को सजा भी दे दी थी। ऊपरी अदालत में उन्हें शक का लाभ देकर सजा से मुक्त कर दिया गया था।

सवाल उठता है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भी भ्रष्टाचार की सहायता से अपनी सरकार बचाने का मुकदमा चल सकता है? इसके बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता, हालांकि नरसिंह राव के मामले में स्थिति थोड़ी अलग थी। उस समय झामुमो सांसदों को मिले उस धन की पहचान हो गई थी और धन की लेनदेन से संबंधित अन्य सबूत भी मिल रहे थे, पर इस बार यह मामला एक विदेशी पोर्टल द्वारा जारी की गई सूचना के आधार पर बन रहा है। वे पोर्टल भी गलत तरीके से सूचनातंत्र में संेध लगाकर अमेरिकी दूतावास और अमेरिका मे ंस्थित उसके विदेश विभाग के अधिकारियों के बीच किए गए संवाद हासिल किया करते थे। अमेरिका का वह राजनयिक जो जानकारियां अपने देश भेज रहा था, उसे हमारी जांच एजेंसी कानून के सामने गवाह बनाकर नहीं ला सकती। राजनयिक होने के कारण उसे भारतीय कानून की गिरफ्त में आने से छूट मिली हुई है। जिसे सूचना भेजी गई, उसे भी कानून के सामने पेश नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह भी किसी और देश में रहता है। सूचना देने वाले और सूचना प्राप्त करने वाले दोनों कुछ भी कहने को तैयार नहीं हैं। वे यह नहीं कह सकते कि उनके नाम से जो कुछ कहा जा रहा है, वह सच है अथवा गलत और उनकी इच्छा के खिलाफ उन्हंे कुछ भी कहने के लिए बाघ्य नहीं किया जा सकता।

विकीलीक्स से जुड़े लोगों को भारतीय कानून के सामने लाने का भी कोई मतलब नहीं बनता, क्योकि वे सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि उन्होंने संवाद तंत्र में संेध लगाकर संवाद को हासिल किया था और जो संवाद कहा गया वह सही है या गलत, यह तो वही बता सकता है, जिसने संवाद प्रेष्ति किया है। यानी लीक के आधार पर कोई अदालती मामला बनता नहीं दिखाई पड़ता। आरोप चूंकि सरकार पर ही लग रहे हैं इसलिए हम सरकारी जांच एजेंसियों से यह उम्मीद भी नहीं कर सकते कि वह इन सारे मामले की तहकीकात करे और दोषियों को अदालत के कटघरे में खड़ा कर दे। नरसिंह राव का मामला दूसरा था। जब उन्हें कानून के कटघरे में खड़ा किया गया था, उस समय उनकी सरकार नहीं थी।

मामला भले अदालत में नहीं जायण् लेकिन इन खुलासों का जबर्दस्त राजनैतिक निहितार्थ हैं। जनता सबकुछ देख रही है और यह मानना बलत होगा कि भ्रष्टाचार को हमारे देश के लोगों ने शिष्टाचार मान लिया है। बिहार विधानसभा में कांग्रेस की करारी हार के पीछे चुनाव के समय और उसके पहले राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार की खबरों का भी योगदान था। यदि भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी उस समय नहीं लगती तो कांग्रेस को उतनी शर्मनाक पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। अभी 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। इन चुनावों में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की स्थिति बहुत अच्छी मानी जा रही थी। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और उसकी वरिष्ठ सहयोगी तृणमूल कांग्रेस की जीत पक्की मानी जा रही थी। केरल में कांग्रेस के मार्चे की जीत को स्वाभाविक माना जा रहा था। असम में विपक्ष के विभाजित होने और उल्फा विद्रोहियों को वार्ता की मेज पर लाने के कारण कांग्रेस की जीत भी निश्चित मानी जा रही थी। तमिलनाडृ में पीएमके द्वारा करुणानिधि के मोर्चे में वापस आने के बाद पलड़ा वहां भी यूपीए के पक्ष में झुका हुआ था। वही हाल पुदुचेरी का भी था, लेकिन भ्रष्टाचार के मामले जिस तरह से सामने आ रहे हैं, उसे देखते हुए यह कहना कठिन नहीं है कि पश्चिम बंगाल को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में कांगेस और उसके सहयोगी दलों की जीत अनिश्चित हो गई है।

अपने पहले कार्यकाल में मनमोहन सिंह ने जितनी आसानी के साथ सरकार चलाई, अब सरकार चलाना उनके लिए उतना ही कठिन होता जा रहा है, जबकि उस समय वाम मोर्चा उनकी नीतियों पर अंकुश लगाने का काम करते थे। इस समय अंकुश लगाने वाला तो कोई नहीं है, लेकिन सरकार अपने कार्यो के कारण ही एक के बाद एक संकट में फंसती जा रही है। राष्ट्रमंडल खेल, 2 जी स्पेक्ट्रम, पी जे थामस और अन्य अनेक प्रकरण सरकार की नींद हराम कर रहे हैं। लगता है कि मनमोहन सरकार की समस्याओं का कोई अंत ही नहीं है। (संवाद)