पिछले विधानसभा चुनाव के समय भी श्री अच्युतानंदन को पहले टिकट देने से मन कर दिया गया था। तब उनके समर्थकों ने बहुत हंगामा किया। उनके हंगामे के बाद पार्टी के केन्द्रीय नेत्त्व ने हस्तक्षेप कर उनका टिकट सुनिश्चित करवाया था। चुनाव के बाद अच्युतानंदन मुख्यमंत्री भी बने। यह देश की राजनीति में अन्य राज्यों के लोगों के लिए अचरज का विषय हो सकता है कि जिस व्यक्ति को पार्टी विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए टिकट देने के लायक नहीं समझती थी, वह चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बन बैठा।

किसी मुख्यमंत्री को पार्टी का टिकट नहीं दिया जाना भी हमारे देश के अन्य राज्यों के लोगों के लिए हैरत की बात होगी, लेकिन केरल में ऐसा ही हो रहा था। मुख्यमंत्री की पार्टी की राज्य ईकाई के सचिव के साथ नहीं पटती है। दोनों के बीच मतभेद सार्वजनिक भी होते रहे हैं। दोनों के बीच के मतभेदों के बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री के पद से तो नहीं हटाया गया, पर पार्टी की सबसे बड़ी समिति पोलित ब्यूरो से उनकी जरूर छुट्टी कर दी गई।

विधानसभा चुनावो के नजदीक आने के साथ ही यह चर्चा शुरू हो गई थी कि शायद मुख्यमंत्री को टिकट दिया ही नहीं जाय। इस चर्चा को उस समय और भी बल मिला था, जब पार्टी महासचिव प्रकाश कारत ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की उम्मीदवारी की घोषणा करते हुए कह दिया था कि उनके बारे में निर्णय केरल की राज्य समिति लेगी।

केरल की राज्य समिति पर केरल के पार्टी सचिव पी विजयन का दबदबा है। समिति पर फैसले का दारोमदार छोड़ने का मतलब अच्युतानंदन का टिकट काटना ही था। इस तरह प्रकाश कारत ने संकेत दे दिया कि मुख्यमंत्री को चुनाव लड़वाने में उनकी दिलचस्पी नहीं है।

उधर केरल के पार्टी सचिव ने मामला जिलों की समितियों के ऊपर डाल दिया। जिला समितियों से मुख्यमंत्री की उम्मीदवारी से संबंधित अनुशंसाएं आमंत्रित की गईं। उनमें लगभग सभी पर पी विजयन का ही दबदबा है। लिहाजा, एक जिला ईकाई को छोड़कर अन्य सभी ने मुख्यमंत्री को विधानसभा का चुनाव लड़ने के काबिल नहीं समझा।

जिला समितियों की सिफारिशों के बाद अंतिम फैसला राज्य समिति को लेना था। साफ था कि समिति मुख्यमंत्री के चुनाव लड़ने के खिलाफ फैसला लेगी। दिल्ली में केन्द्रीय नेताओं को इसका अहसास था, इसलिए उन्होंने पार्टी महासचिव प्रकाश कारत और रामचन्द्रन पिल्लै को यह कहकर समिति की बैठक में भेजा कि वे समिति के सदस्यों को पार्टी के पोलित ब्यूरो के रवैये से अवगत कराएं और मुख्यमंत्री की उम्मीदवारी सुनिश्चित कराएं।

पर समिति की बैठक में दोनों केन्द्रीय नेताओं की भूमिका तमाशबीन की बनी रही। उन्होंने पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व के निर्णय से राज्य समिति के सदस्यों को अवगत कराया ही नहीं। उन्होंने अपनी तरफ से अच्युतानंदन की उम्मीदवारी को लेकर किसी प्रकार की उत्सुकता ही नहीं दिखाई और समिति ने मुख्यमंत्री की चुनावी टिकट देने से मना कर दिया।

लेकिन उस निर्णंय का केरल के अनेक इलाकों में ही नहीं, बल्कि दिल्ली के नेताओं के बीच भी विरोध होने लगा। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने भी अपनी नाराजगी दिखाई। सीताराम यचुरी ही नहीं, वृंदा कारत ने भी मुख्यमंत्री की चुनावी टिकट से वंचित कर दिए जाने के फैसले को गलत करार दिया। राज्य के अनेक जिलों में राज्य समिति के उस फैसले के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन होने लगे।

अंत में पार्टी के पोलित ब्यूरो की फिर से बैठक हुई। उस बैठक में प्रकाश कारत की खिंचाई भी हुई, क्योंकि राज्य समिति की बैठक में उन्होनंे चुप्पी साधकर अच्युतानंदन का टिकट कटवाने में अपनी तरफ से भी योगदान किया था। वैसे उनका कहना है कि वे अपनी तरफ से बैठक में उसके बारे में कुछ कहते उसके पहले ही राज्य के कुछ पार्टी नेताओं ने अच्युतानंदन की उम्मीदवारी के खिलाफ अपने संकल्प से उन्हें अवगत करा दिया था। उनका संकल्प देखकर श्री कारत ने अपनी तरफ से उम्मीदवारी के मसले पर चुप्पी साध ली थी।

अब जब अच्युतानंदन की उम्मीदवारी तय हो गई है, तो इससे पार्टी के कार्यकत्ताओं के बीच खुशी छा गई है। इसके कारण कांग्रेसी खेमे में मायूसी भी छा गई है, जो अच्युतानंदन के अभाव में अपनी जीत सुनिश्चित मान रहे थे। उन्हें पता है कि आज अच्युतांदन लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं। उनकी छवि भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध करने वाले योद्धा की है। आज जब कांग्रेस देश भर में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही है, वैसी स्थिति में अच्युतानंदन की चुनाव में उपस्थिति कांग्रेस की जीत को मुश्किल में डाल सकती है। (संवाद)