मायावती यदि चुनाव समय से पहले करवाने की सोच रही है, तो उसका एक सबसे बड़ा कारण यही है कि उसे लगता है कि कांग्रेस फिलहाल चुनाव के लिए तैयार नहीं है। लोकसभा में कांग्रेस ने शानदार सफलता हासिल करके मायावती के केन्द्र में किसी निर्णायक भूमिका में आने के इरादे को तार तार कर दिया था और राज्य में लोकसभा की सीटों पर जीत के लिहाज से बसपा तीसरे नंबर की पार्टी बन गई थी। राज्य में ब्राह्मणों की संख्या कुल आबादी की 10 फीसदी है, जिसका ज्यादा हिस्सा पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती के साथ था, लेकिन लोकसभा चुनाव में मंे कांग्रेस में आ गए थे। मायावती को पता है कि ब्राह्मण लाचारी में उन्हें मत देते हैं, क्योकि वे अपने मतों से न तो भाजपा को जीत दिला सकते हैं और न कांग्रेस को। इसलिए समाजवादी पार्टी को सत्ता से बाहर रखने के लिए वे पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती के साथ आ गए थे।

भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में हासिए पर खिसकती जा रही है। कल्याण सिंह के पार्टी से बाहर जाने और अटल बिहारी वाजपेयी के सक्रिय राजनीति से अलग हो जाने के कारण राज्य में भाजपा की हालत खस्ता हो गई है। इसलिए उससे मायावती को किसी प्रकार की चुनौती नहीं मिलने वाली है। उनकी चिंता का कारण मुलायम सिंह यादव भी नहीं हैं, क्योकि राज्य की आबादी का एक बड़ा हिस्सा उन्हें सत्ता से बाहर रखने के लिए मतदान करता है और जो भी उन्हें हराने में सक्षम हो उसके साथ जाने में दिलचस्पी रखता है।

मायावती को डर है तो बस कांग्रेस का। कांग्रेस यदि शक्तिशाली विकल्प के रूप में उभरती है, तो ब्राह्मण पूरी तरह उसके साथ चले जाएंगे ओर फिर मायावती का समर्थन आधार सिकुड़ जाएगा। लोकसभा चुनाव में वही हुआ था और विधानसभा चुनाव में वैसा नहीं हो, इसकी कोशिश में मायावती लगी हुई है। यदि मायावती इसी सान चुनाव कराने की सोच रही है, तो उसके पीछे यही सोच है कि कांग्रेस अभी चुनाव के लिए तैयार नहीं है।

बिहार में कांग्रेस को भारी झटका लगा है। उसकी वहां अबतक की सबसे शर्मनाक हार हुई है और उस हार के बाद लगता है कि राहुल गांधी का आत्म विश्वास भी डिग गया है। उनके डिगे आत्मविश्वास का ही यह नतीजा है कि 5 राज्यों मे हो रहे विधानसभा चुनावों में वे अपनी पार्टी की तरफ से किसी बड़ी भूमिका में नहीं दिखाई पड़ रहे। दरअसल कांग्रेस ने बिहार चुनाव में मिली शिकस्त के बाद राहुल की निजी प्रतिष्ठा को किसी राज्य के चुनाव में दाव पर नहीं लगाने का निर्णय किया है, ताकि उत्तर प्रदेश की चुनावी तैयारियों और वहां के कार्यकर्त्ताओं के मनोबल पर कोई असर नहीं पड़े। जाहिर है राहुल गांधी सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही अपनी सारी ताकत और सारे कौशल का इस्तेमाल करना चाहते हैं। चुनावों में अकेला चलने की उनकी नीति को उत्तर प्रदेश ने ही लोकसभा चुनावों में सही ठहराया था।

पर सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी लोकसभा चुनावो मे मिली सफलता को और भी बेहतर बनाने में सफल हो पाएंगे या उत्तर प्रदेश में बिहार अपने आपको दुहरा देगा? उत्तर प्रदेश की तुलना बिहार के साथ इसलिए किया जाना मायने रखता है, क्योंकि दोनों राज्यों की राजनीति मिलती जुलती है। चुनावों के नतीजे जातियों के समीकरण, अंकगणित और रसायन शास्त्र से तय होते हैं। बिहार में नीतीश कुमार ने विकास विकास का चाहे जितना शोर मचाया हो, लेकिन उनकी जीत के पीछे विशुद्ध जातिवादी गठजोड़ कारण रहा है।

लोकसभा चुनावों के बाद बिहार में भी कांग्रेस का सबकुछ ठीकठाक चल रहा था। जगदीश टाइटलर वहां के समाज को समझकर सही रणनीति बनाने में भी लगे हुए थे। सभी राजनैतिक दलों से असंतुष्ट एक सामाजिक समूह बिहार में उभर रहा था, जिसके पास करीब 25 फीसदी मत थे। वैश्य समुदाय के रूप में उभरे इस जाति समूह की जातियां पिछड़े वर्गो में आती हैं, जो मंडल आंदोलन के कारण लालू के साथ हो गई थी, लेकिन कानून व्यवस्था ख्राब होने व लालू द्वारा सिर्फ अपनी जाति के लोगों को तरजीह देने के कारण वे लालू विरोधी हो गए। फिर वे एनडीए के साथ हो गए, पर वहां भी उन्हें सही राजनैतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा था। कांग्रेस की ओर यह सामाजिक समूह मुखातिब हो रहा था, क्योंकि कांग्रेस की ओर से वैश्य महासम्मेलन के राष्ट्रीय अध्यक्ष गिरीश संघी बिहार में घ्यान केन्द्रित कर रहे थे। वहां के संगठनात्मक चुनावों का कांग्रेस ने उन्हें प्रभारी भी बना रखा था। और वैश्य समुदाय के लोग उससे जुड़ने भी लगे थे।

पर कांग्रेस ने जगदीश टाइटलर के साथ गिरीश संघी को भी बिहार की राजनीति से अलग कर दिया और कांग्रेस में वे लोग हावी होने लगे, जिन्हें वहां की जनता पहले ही नकार चुकी थी। उसके अलावा कुछ अन्य पार्टियों से नकारे गए लोग भी कांग्रेस में आ गए। फिर तो कांग्रेस के पास हारने का कोई विकल्प ही नहीं था। राजनैतिक जगह पाने के लिए व्यग्र राज्य की 25 फीसदी वैश्य आबादी को कांग्रेस ने एक झटके में खो दिया और चुनाव के पास समर्थन के लिए उसके पास कोई सामाजिक आधार बचा ही नहीं था। लिहाजा वहां उसे अभूतपूर्व पराजय का सामना करना पड़ा।

उत्तर प्रदेश की स्थिति भी बिहार से अलग नहीं है। यहां भी बिहार की तरह पिछड़ा वर्ग आंदोलन विफल हो गया है और पिछड़े वर्गों की दर्जनों जातियों ने अपने आपको वैश्य पहचान देना शुरू कर दिया है, हालांकि यहां अपने आपको वैश्य कहने वाले लोगों का एक हिस्सा अगड़ा समुदाय में भी आता है, जो परंपरागत रूप से भाजपा का समर्थक रहा है। पर भाजपा के हाशिए पर चले जाने के बाद वे भी अपने लिए राजनैतिक जबह की तलाश में लगे हुए हैं। कांग्रेस उनकी जगह हो सकती है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि वह यहां वैसी गलती नहीं दुहराए, जो उसने बिहार में की। वैश्य समुदाय के नेताओं को तवज्जो देकर ही वह उस समुदाय का समर्थन हासिल कर सकती है। अपने परपरागत सामाजिक आधार ब्राह्मणों का समर्थन भी उसे तभी मिलेगा, जब उसके पास अन्य सामाजिक आधार भी हो, क्योंकि चुनाव में मतदान लोग उम्मीदवारों को जीत दिलवाने के लिए करते हैं, उनकी जमानत बचाने के लिए नहीं।

पर लगता है कि कांग्रेस ने राज्य मंे अपनी तैयारी पूरी नहीं की है। वह अभी भी ब्राह्मण, दलित और मुसलमान के पुराने समीकरण को आजमाना चाह रही है। दलित तो मायावती से हटने से रहे। मुसलमान फिर मुलायम की ओर मुखातिब हो रहे हैं। यदि कांग्रेस ने किसी अन्य सामाजिक आधार को अपने आपसे नहीं जोड़ा, तो ब्राह्मण चाहते हुए भी उससे दूर मायावती की ओर चले जाएंगे। और इस तरह से कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश मंे बिहार दुहरा दिए जाने का खतरा पैदा हो जाएगा। (संवाद)