देश के मानचित्र में लाल रंग का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। इस चुनाव के बाद यह और भी सिकुड़ा हुआ दिखाई पड़ेगा। लगता है कि वामपंथी नेता अभी से इस आशंका के तहत अपने आपको तैयार करने में लग गए हैं। इस समय वामपंथी दल तीन राज्यों की सत्ता में हैं।वे राज्य हैं केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा। केरल और पश्चिम बंगाल में आने वाले दिनों में चुनाव हो रहे हैं। इन दोनों राज्यों में वामपंथी दलों के हाथों से सत्ता खिसकती हुई दिखाई दे रही है। पश्चिम बंगाल तो इनका गढ़ रहा है। पिछले 43 सालों से उनका वहां सरकार रही है। पर इस बार वहां वाम विरोधी लगह चलती दिखाई दे रही है। केरल में तो एक बार कांग्रेस के नेतृत्व वाला मोर्चा चुनाव जीतता है तो उसके बाद वाले चुनाव में सीपीएम के नेतृत्व वाला मोर्चा। इस बार बारी कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्चे की है।

पिछले लोकसभा चुनाव मे ही वामदलों की हालत खराब हो गई थी। उस चुनाव के पहले लोकसभा में उनके कुल 64 सासद थे। चुनाव के बाद उनके सांसदों की संख्या आज सिर्फ 24 है। राज्य सभा में उनके सांसद अभी 23 हैं, लेकिन आने वाले सालों में इस संख्या में भी कमी आएगी, क्योंकि जिन राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों ने उन्हें निर्वाचित किया है, उन विधानसभाओं में वामदलों के विधायको की संख्या ही आगामी चुनाव के बाद घट जाएगी।

भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता और विकास जैसे मुद्दे चुनाव में उठाए तो जा रहे हैं लेकिन इन मुद्दों से जुड़ी कोई लहर कहीं दिखाई नहीं पड़ रही है। यदि किसी प्रकार की कोई लहर है भी तो वह वाम मोर्चा शासित दो राज्यों मंे वाम और सीपीएम विरोध की लहर है। चुनावी पंडितों का मानना है कि पश्चिम बंगाल में इस बार तृणमूल और कांग्रेस का गठबंधन सत्ता हासिल करने में सफल हो जाएगा। वाम नेताओं को भी इन दोनों राज्यों में उनके खिलाफ लगर दिखाई पड़ रही है। सीपीएम वाम दलों की नेता है और उसी की हालत आज ठीक नहीं है। उसके अंदर गुंडे लोगों के प्रवेश के आरोप लग रहे हैं। नंदीग्राम और सिंगूर ने उनकी नींव हिला रखी है। राज्य में विकास का भी अभाव है।

केरल में इस बार कांग्रेसी मोर्चा के सत्ता में आने की बारी है। वैसे भी सीपीएम के अंदर दरार बनी हुई है। पिछले 5 सालों से राज्य के मुख्यमंत्री और राज्य ईकाई के सचिव के बीच युद्ध की स्थिति बनी हुई है। उनके झगड़े के कारण उन दोनों को पोलित ब्यूरो से भी निलंबित कर दिया गया था। प्रदेश सचिव पी विजयन का निलंबन तो वापस ले भी लिया गया, लेकिन मुख्यमंत्री को तो उससे बाहर ही कर दिया गया। टिकट बंटवारे के समय मुख्यमंत्री का टिकट ही काट दिया गया। बाद में कार्यकर्त्ताओं द्वारा हल्ला हंगामा किए जाने के बाद पार्टी के पोलित ब्यूरो ने हस्तक्षेप किया और मुख्यमंत्री टिकट पाने में सफल हुए। लेकिन इसके कारण पार्टी के अंदर जो दरार बनी हुई है और और भी ज्यादा साफ साफ देखी जा सकती है। वहां सीपीएम मुख्यमंत्री के व्यक्तिगत करिश्मे की बदौलत चुनाव लड़ रही है।

सवाल उठता है कि यदि देश की राजनीति में वाम मोर्चा और भी सिकुड़ गया, तो देश की राजनीति का क्या होगा? देश की राजनीति के साथ साथ खुद उनके भविष्य के बारे में भी सवाल उठता है। माना जा रहा है कि वाम मोर्चे की हार का पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की राजनीति पर ज्यादा असर पड़ेगा। केरल में तो व पार्टियां सत्ता में आकर फिर बाहर रहने की अभ्यस्त रही हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल में तो पिछले 34 सालों से लगतार सत्ता में वे बनी हुई हैं। इसलिए सरकार से बाहर होने के बाद अनेक कामरेड पार्टी से बाहर चले जाएंगे। पार्टी को वहां फिर से अपने पैरों पर खड़ा होने में कुछ साल लग जाएंगे।

केन्द्रीय स्तर पर प्रकाश करात की फजीहत हो सकती है। उन पर पार्टी का महासचिव पद छोड़ने का दबाव बन सकता है और वे अपने पद से हटाए भी जा सकते हैं। वाम मार्चा के अन्य दल भी सीपीएम के साथ अपने संबंधों को फिर से पारिभाषित करने की कोशिश कर सकते हैं। उनके संबंधों में बदलाव भी आ सकता है। (संवाद)