आखिर अन्ना भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए चाहते क्या हैं? उनके पास केन्द्र सरकार के लिए एक जन लोकपाल विधेयक और राज्यों के लिए जन आयुक्त विधेयक का मसौदा है, जिन्हें पूर्व विधि मंत्री शांति भूषण, न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण जैसे लोगों ने मिलकर तैयार किया है। यदि उसे मसौदे के अनुसार केन्द्र में लोकपाल कानून बनता है तो भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है। उसमें एक शक्तिशाली एवं स्वतंत्र लोकपाल की व्यवस्था है, जिसके दायरे में न केवल प्रधानमंत्री बल्कि भारत के प्रधान न्यायाधीश भी आ जाएंगे। राजनैनीतिज्ञों के अलावा नौकरशाह भी लोकपाल की जद में होंगे और लोकपाल को किसी की भी जांच करवानेए मुकदमा करवाने और सजा दिलवाने का व्यापक अधिकार होगा। आ व्यवस्था के तहत अपराधियों का बच पाना बेहद ही कठिन हो जाएगा।
भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की आज कोई पुख्ता व्यवस्था है ही नहीं। दरअसल आज जो व्सवस्था है वह अंग्रेज के जमाने से ही चली आ रही है। अंग्रेज के जमाने में प्रशासन की भूमिका लूटेरे की थी, जिसमें लूटेरे को काफी संरक्षण प्राप्त था। वह संरक्षण आज भी प्रशासन के लोगों को प्राप्त है। उसके संरक्षण में आजादी के बाद भी भ्रष्टाचार फलता फूलता रहा है और आज उसने उतना बड़ा आयात प्राप्त कर लिया है कि उसके कारण देश के लोकतंत्र को ही खतरा पैदा हो गया है। भ्रष्टाचार के बूते हजारों करोड़ रुपए रखने वाले अनेक नेता अस्तित्व में आ गए हैं और अपने धनबल के द्वारा वे देश के लोकतंत्र को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं औैर भ्रष्टाचार को बहुत नीचे तक उतारकर देश की संस्कृति का हिस्सा बनाने में लग गए हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद कई बार कह चुके हैं कि भ्रष्टाचार से विकास प्रभावित हो रहा है। पर सवाल उठता है कि इससे क्या क्या नहीं प्रभावित हो रहा है? इससे आज लोकतंत्र को खतरा पैदा हो गया है और यह जनतंत्र धनतंत्र में तब्दील होता जा रहा है। भ्रष्टाचार हमारे देश का शिष्टाचार बनता जा रहा है। यह देश के लिए बेहद खतरनाक है और इसे रोकना अब बेहद जरूरी हो गया है।
पिछले कुछ महीनों में हजारों करोड़ो रुपए के भ्रष्टाचार के तीन बड़े मामले देश के सामने आए। एक आइपीएम घोटाला था, जिसमें पता चला कि हजारों करोड़ रुपए का काला धन इसके माघ्यम से विदेशों से आ रहा है। उस खेल में राजनीतिज्ञ, ग्लैमर की दुनिया के कुछ लोग और कुछ उद्योगपति शामिल थे। जब इससे संबंधित मामला मीडिया में उछल रहा था, तो प्रवर्त्तन निदेशालय, सीबीआई और आयकर विभाग के छापे एक के बाद एक पड़ने लगे। जांच एजेंसियों से खबरे लीक करनी शुरू कीं और बताना शुरू कर दिया कि आइपीएल में क्या क्या खेल हो रहा है। केन्द्र सरकार के मंत्री के नाम इसमें आने लगे उनकी बेटियों के नाम भी आए। पर बाद में कुछ भी नहीं हुआ। एक मंत्री को हंगामा शुरू होने के कुछ समय के बाद हटाया गया था और बाद में ललित मोदी को उनके पद से हटा दिया गया। उनके खिलाफ मुकदमा भी चलाया गया है। मंत्रिपरिषद से हटाए गए शशि थरूर के खिलाफ तो मुकदमा भी नहीं चलाया गया। पूरे मामले का अंत एक मजाक में हुआ। हजारों करोड़ रूपए के काले धन को सफेद धन मंे बदलने का जरिया बना आइपीएल आज भी जिंदा है। उससे जुड़े काले धंधे आज भी जारी हैं।
आइपीएल के खेल के बाद राष्ट्रमंडल खेलों में हुए भ्रष्टाचार का मामला सामने आया। जब 2003 में भारत ने इस खेल को दिल्ली में आयोजित करने का दावा पेश किया था, तो उस समय इस पर होने वाला खर्च 300 से 400 करोड़ रुपए बताया गया था, पर जब खेल समाप्त हुआ तो मालूम हुआ कि खर्च 70 हजार करोड़ रुपए हो गए। इस खर्च का अधिकाश हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है, इसमें किसी को संदेह नहीं, लेकिन इतने व्यापक भ्रष्टाचार के खेल के सामने हमारी जांच एजेंसियां नाकाफी साबित हो रही हैं। भ्रष्टाचार के खेल में शामिल मुख्य लोगों तक जो जांच की आंच पहुंच भी नहीं पाई है। जो लोग खेलो के दौरान खर्च की देखरेख के प्रभारी थे और निकी देखरेख में भ्रष्टाचार हुए, कलमाड़ी को छोड़कर अन्य सभी अपने पदों पर बने हुए हैं। सभी को मामले रफा दफा करने के लिए जांच एजेंसियों से पर्याप्त समय दे दिए।
यही 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला में हो रहा है। एक ए राजा जेल में हैं और उनसे भी बड़े खिलाड़ी आजाद घूम रहे हैं। एक मुख्य खिलाड़ी गवाह बनना चाहता था, उसकी मौत हो चुकी है। सीबीआई इस मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में कर रही है, इसलिए लोगों को इससे थोड़ी उम्मीद दिखाई दे रही है, लेकिन सीबीआई अंततः केन्द्र सरकार के अंदर है और उसके ऊपर उन्हीं हुक्मरानों का हुक्म चलता है, जिनकी नजरों के सामने भ्रष्टाचार होता है। फिर उससे कोई खास उम्मीद करना बेमानी ही होगी।
इसलिए आज जरूरत है एक शक्तिशाली और स्वतंत्र संस्था की। सीबीआई को ताकत दी गई है। वह कहीं भी छापा मारकर सबूत एकत्र कर सकती हैं। वह मुकदमा भी चला सकती है, लेकिन वह स्वतंत्र नहीं है। एक केन्द्रीय निगरानी आयोग है, जो स्वतंत्र है, लेकिन उसके पास कोई ताकत ही नहीं है। वह किसी के खिलाफ मुकदमा तब दायर नहीं कर सकता। उसके पास संसाधन भी नहीं है कि अपने पास आई शिकायतों की वह खुद जांच कर सके। वह वे शिकायतें उन्हीं विभागों में भेज देती है, जिनके खिलाफ शिकायत आती है। यानी भ्रष्टाचार मिटाने की वर्तमान व्यवस्था में आरोपित ही खुद जज बन जाता है। यही राज्यों के स्तर पर भी हो रहा है। जनता लाचार है। सरकारी भ्रष्टाचार मिटाने का कोई शक्तिशाली और स्वतंत्र तंत्र ही विकसित नहीं हुआ है। जो शक्तिशाली है, वह स्वतंत्र नहीं है और जो स्वतंत्र है, वह शक्तिशाली नहीं है।
केन्द्र सरकार जो लोकपाल का कानून बनाना चाहती है वह सीवीसी (केन्द्रीय निगरानी आयोग) की तरह दंतहीन और कमजोर होगा। उसके दायरे से नौकरशाहों को बाहर रखा जा रहा है। लगभग सभी बड़े भ्रष्टाचार राजनेताआंे और नौकरशाहों की मिलीभगत से होते हैं, इसलिए नौकरशाहों को अलग रखने का मतलब है उसकी जांच को बेमानी बना देना। इसके अलावा लोकपाल को एक मुकदमा दर्ज करने का अधिकार तक नही है, वह केन्द्र के पास जांच करके अपनी सिफारिशें भेजने का काम करेगा। दिल्ली के लोकायुक्त ने प्रदेश सरकार एक मंत्री राजकुमार चौहान को आयकर चोर को बचाते हुए पकड़ा और उन्हें सरकार से हटाने की सिफारिश की, लेकिन मंत्री चौहान अपने पद पर अभी भी बने हुए हैं। जो हाल आज दिल्ली के लोकायुक्त की सिफारिश का है, यदि वह हाल केन्द्र सरकार के लोकपाल का होना है, तो फिर उसे लोकपाल कानून का क्या मतलब?
इसलिए यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वास्तव में भ्रष्टाचार को मिटाना चाहते हैं, तो उन्हें अन्ना की बात मान लेनी चाहिए। अन्ना जो कह रहे हैं, वे उनकी अपनी निजी बात भी नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार मिटाने की राय रखने वाला हर भारतीय की राय है। उनकी बात मानने का साहस दिखाकर मनमोहन सिंह यह साबित कर दें कि वे खुद भ्रष्ट तो नहीं ही हैं, इसके अलावे वे भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ भी हैं।
(संवाद)
भारत
अन्ना हजारे का आंदोलन
मनमोहन सिंह को साहस दिखाना चाहिए
उपेन्द्र प्रसाद - 2011-04-07 20:21
भ्रष्ट नहीं होना एक बात है और भ्रष्टाचार का विरोधी होना दूसरी बात है। भ्रष्टाचार के मसले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जो रवैया अपना रखा है उससे यही लगता है कि खुद भ्रष्ट नहीं होते हुए भी वे भ्रष्टाचार के विरोधी नहीं हैं। अन्यथा क्या कारण है कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस कानून बनाने के अन्ना हजारे के प्रस्ताव पर सकारात्मक रुख नहीं दिखा रहे हैं? पिछले 5 अप्रैल को आमरण अनशन पर श्री हजारे एकाएक दिल्ली आकर बैठ नहीं गए, बल्कि उन्होंने उसके पहले प्रधानमंत्री को सार्थक लोकपाल विधेयक तैयार करने की कई बार अपील की, पर हमेशा उन्होंने अन्ना को निराश किया। अंत में अन्ना को अनशन का गांधीवादी रास्ता अख्तियार करना पड़ा।