वैसे भी भूमि अधिग्रहण का मामला इधर बहुत विस्फोटक मामला बन गया है। देश का शायद कोई ही हिस्सा ऐसा बचा हो, जहां भूमि अधिग्रहण का किसी न किसी बहाने विरोध होता है। अनेक जगह तो भूमि अधिग्रहण का सीधे विरोध होता है और अनेक जगहों पर उचित मुआवजे के लिए आंदोलन होता है। भट्टागांव में मामला उचित मुआवजे से जुड़ा हुआ है। हालांकि सरकार कह रही है कि जमीन अधिगृहित कर ली गई है और मुआवजे का भुगतान भी कर दिया है। पर सवाल उठता है कि यदि ऐसा हो गया है तो फिर किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं?
दरअसल भूमि अधिग्रहण के द्वारा करोड़ो अरबों रुपए का घोटाला हो रहा है और किसान उन घोटालों को बहुत नजदीक से देख और समझ रहे हैं। उन्हें साफ दिखाई पड़ रहा है कि जिस जमीन के वे मालिक थे, उसकी कीमत तो उन्हें बहुत कम मिली, लेकिन बिचौलिए और दलाल जमीन के उन्हीं टुकड़ों के बूते मालोमाल हो रहे हैं। उनसे जमीन अधिगृहित कर ली जाती है। जमीन अधिग्रहण के बाद निजी कॉलोनाइजरों और बिल्डरों को बेच दी जाती है। जितनी कीमत पर सरकार उस जमीन को खरीदती है, उससे कहीं ज्यादा कीमत पर वह निजी हाथों में बेचती है। उस सौदे में दो तरह से भुगतान किया जाता है। भुगतान का एक हिस्सा सरकार के पास जाता है और दूसरा हिस्सा, जो दलाली का हिस्सा है, अफसरों और बिचौलिए के पास चला जाता है। उसके बाद निजी कॉलोनादजर जमीन के उस टुकड़े को और भी अधिक कीमत पर बेचते हैं। इन सबके बीच का अंतराल भी कोई बहुत लंबा नहीं होता। किसान, सरकार और निजी कालोनाइजर के बीच जमीन के लाभार्थियों का जो अंकगणित होता है, वह किसानों को बहुत परेशान करता है और वही परेशानी दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के इलाकों में किसानों के असंतोष का कारण बन रहा है।
एक किसान के अनुसार उनकी जमीन सरकार 400 रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर से खरीदना चाह रही थी। उन्होंने उस दर पर अपना असंतोष जताया, तो उनकी जमीन के 840 रुपए प्रति मीटर दिए गए। अब वही जमीन एक निजी कालोनाइजर 24 से 40 हजार रुपए प्रति मीटर की दर से बेच रहे है। इसमें मजे की बात तो यह है कि जिस रूप में जमीन पहले थी, आज भी वह उसी रूप में है। किसानों से जमीन अधिग्रहण के बाद उस पर किसी तरह के विकास का काम नहीं किया गया है। अनेक मामलों मंे तो सरकार ने उस जमीन को अपने कब्जे में लिया ही नहीं है और किसान अभी भी उस पर खेती कर रहे हैं। अब किसानों को लगता है कि जिस जमीन को वे और उनका खानदान सैंकड़ों सालों से जोत रहा था और जिसके वे मालिक थे, उस जमीन से प्रति वर्ग मीटर उनकी आय 840 रुपए ही है, जबकि निजी कालानाइजर उसी जमीन को उसी रूप में 40 हजार रुपए प्रति वर्ग गज अथवा प्रति वर्ग मीटर बेच रहा है। किसानों और निजी कालानाइजरों द्वारा जमीन बेचने का अंतराल मात्र दो या चार साल ही हैं। उस जमीन पर बिना कालोनी काटे, बिना सीवर या सड़क डाले और बिना प्लाटिंग किए उसकी कीमत उतनी ज्यादा बढ़ जाती है, जिसे किसान पचा नहीं पा रहे हैं और उसके कारण अपने लिए और भी मुआवजे की मांग कर रहे हैं, जबकि सरकार कह रही है कि उन्हें मुआवजा दिया जा चुका है और उनकी जमीन खरीदी जा चुकी है।
सरकार तकनीकी और कानूनी रूप से सही कह रही है, लेकिन सवाल यह उठता है कि किसान जो कह रहे हैं, वह कहां गलत है? यह कौन सी व्यवस्था है, जिसके तहत सैंकड़ो साल से जमीन का मालिक बना किसान अपनी जमीन की वर्तमान कीमत का मात्र एक छोटा सा हिस्सा पाता है। यदि निजी कालोनाजर उस जमीन को 40 हजार रूपए प्रति गज बेच रहा है, तो किसान को उसका मात्र फीसदी ही मिला। दो फीसदी तो प्रोपर्टी डीलर कालोनाजर का प्लाट बिकवाने की एवज में अपना प्रोफशन फी के रूप में ले लेते हैं। यानी किसान देख रहा है कि उसे मात्र उतने ही पैसे अपनी जमीन के मिले, जितने पैसे उस जमीन को कालोनाइजर के हाथों बिकवाने वाला एक प्रोपर्टी एजेंट पा रहा है। अब सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि किसानों के ऊपर क्या बीत रही होगी।
यही कारण है कि किसान अब मांग कर रहे हैं कि सरकार उनकी जमीन का मुआवजे पहले से निर्धारित दरों पर नहीं दे, बल्कि जमीन का जो भी बाजार मूल्य होता है, उसका 80 फीसदी उन्हें दिया जाय। यानी यदि उनकी जमीन आज 40 हजार रुपए प्रति वर्ग गज से बेची जा रही है, तो उन्हे प्रति वगै गज 32 हजार रुपए मिलने चाहिए, न कि 840 रुपए प्रति वर्ग गज। यह उन्की मूल मांग है। इसलिए उत्तर प्रदेश सरकार का यह कहना कि मुआवजा अब कोई मसला नहीं रह गया, गलत है। किसान इसके अलावा आवासीय इलाके में अपने लिए 20 प्रतिशत का आरक्षण भी चाहते हैं। जिस जमीन को बेचा गया, वह भूमिहीन मजदूरों की आजीविका का भी सा्रेत था, इसलिए उस पर काम करने वाले भूमिहीन ग्रामीणों को भी प्रत्येक परिवार 5 लाख रुपए मुआवजे की भी माग की जा रही है।
यानी हम किसानों की मांगों का पूरी तरह से खारिज नहीं कर सकते। हालांकि खेती की जमीन के औद्योगिक, व्यावसायिक अथवा आवासीय क्षेत्र में तब्दील हो जाने का मसला सिर्फ उसके मालिक किसानों और उस पर काम करने वाले मजदूरों तक ही सीमित नहीं है। इसे राष्ट्रीय संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। यह देखा जाना चाहिए कि खेती योग्य जमीन को गैर खेतीहर उपयोग में लाने के क्या खतरे हैं। एक खतरा तो खाद्य सुरक्षा पर भी है। देश की आबादी बढ़ रह है। इसके साथ अनाजों की मांग भी बढ़ती जा रही है। बढ़ती मांग के साथ इसकी बढ़ती आपूतर््िा भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। लेकिन यदि खेती योग्य जमीन ही कम होती जाएगी, तो फिर देश के सामने अनाज का संकट पैदा होना तय है। भारत एक बहुत बड़ी आबादी वाला देश है। इसलिए यह अपनी अनाज जरूरतों के लिए विदेशी आयात पर भी निर्भर नहीं रह सकता। इसका कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में खरीद के लिए इसके प्रवेश के साथ ही वहां भी इसकी कीमतें बढ़ जाती है और दुनिया भर में अनाज संकट पैदा हो जाता हैं। यही कारण है कि सरकार को खेती की जमीन के अधिग्रहण और और किसानों के इस मसले को व्यापक परिप्रेक्ष्य मे ंदेखकर ही सुलझाना चाहिए। (संवाद)
जमीन अधिग्रहण के खिलाफ भड़कती आग
किसानों और खाद्य सुरक्षा की हम उपेक्षा नहीं कर सकते
उपेन्द्र प्रसाद - 2011-05-09 11:59
ग्रेटर नोएडा के भट्टागांव परसौली में लगी आग फैल रही है और इसका इस तरह फेलना बेहद खतरनाक है। जमीन अधिग्रहण से संबंधित आंदोलन तो देश के अनेक हिस्से में हो रहे हैं, लेकिन भट्टागांव अन्य जगहों से इस मायने मं अलग है कि यह राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के बहुत नजदीक है। सच कहा जाए तो यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अथवा वृहद दिल्ली का ही एक हिस्सा है। यदि यह इलाका अशांत होता है, तो इसका देश की राजधानी पर सीधा असर पड़ेगा और यह महज एक स्थानीय समस्या नहीं रहकर एक राष्ट्रीय समस्या का विकराल रूप ले लेगा।