इस चुनाव में राष्ट्ीय पार्टियों केा करंट लगा है, सबसे ज्यादा झटका वामंपथी दलों और बीजेपी को । केंद्र में भ्रष्टाचार और घपलों-घोटालों से घिरी कांग्रेस सरकार को भी मतदाताओं ने सीख दी है। जहां जैसा मौका मिला जनता ने कांग्रेस केा उसके कुकर्मों व कुसंगति की सजा दी है। अगले लोकसभा चुनाव में केंद्र में सरकार बनाने की उम्मीद पाल रही बीजेपी केा जोर का झटका लगा है। इन पांच राज्यों में उसका वोट प्रतिशत गिरा है और वह पूरी तरह दूसरे दलों के समर्थन के आसरे रह गयी है। वामपंथी के हाथों में अब सिर्फ एक राज्य त्रिपुरा की सत्ता बच गयी है।

पंश्चिम बंगाल में कांग्रेस ममता की तृणमूल कांग्रेस का पिछलग्गु बन कर रह गयी है। वहां की जनता ने कांग्रेस केा इसलिए नकार दिया कि यूपीए सरकार वन की बुनियाद वामपंथियों के समर्थन पर ही टिका था। इसलिए पं बंगाल की जनता ने सामने ममता के सिवा ऐसा कोई दमदार विकल्प मौजूद नहीं था जो राज्य के सर्वशक्तिमान वाम मोर्चे के लिए मजबूत चुनौती खड़ी कर सके। ममता बनर्जी का परिवर्तन का नारा जन-आकांक्षाओं से मेल खाता था। सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं के बाद तृणमूल कांग्रेस ने सिद्ध किया कि वह एक मजबूत ताकत है जो राजनीति और स्थानीय स्तर पर वाम कैडर को उसी के अंदाज में जवाब देने में सक्षम है। इस प्रक्रिया में उन्होंने माओवादियों को साथ लेने जैसा अलोकप्रिय कदम भी उठाया लेकिन पिछले चार-पांच साल में ममता बनर्जी की लगभग हर रणनीति अनुकूल सिद्ध हुई।

तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में सत्ता विरोधी लहर को कांग्रेस या तो भंाप नहीं पाई या मजबूरीवश उससे आंख मूंदे रही। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को अब पछतावा हो रहा होगा कि उसने न सिर्फ कुछ महीने पहले तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के साथ गठजोड़ का मौका खो दिया था बल्कि पार्टी के शीर्ष नेताओं ने द्रमुक के साथ चुनाव सभाओं में हिस्सा लेकर निकट भविष्य में भी अन्नाद्रमुक को साथ लेने की संभावना खत्म कर दी। द्रमुक की गिरती छवि, पार्टी के आंतरिक संघर्ष और बढ़ती अलोकप्रियता के बावजूद सोनिया गांधी और डॉ. मनमोहन सिंह ने तमिलनाडु में चुनाव प्रचार किया और द्रमुक नेताओं के साथ मंच साझा किया। कांग्रेस न सिर्फ मतदाताओं का मानस पढ़ने में नाकामयाब रही बल्कि उसने इस तथ्य को भी नजरंदाज कर दिया कि पिछली बार को छोड़कर तमिलनाडु में प्रायः हर चुनाव में सत्ताधारी बदल जाते हैं। जिस तरह 2जी स्पेक्ट्रम में कानून के हाथ स्वयं करुणानिधि के परिवार तक जा पहुंचे हैं और पूर्व केंद्रीय मंत्री ए राजा जेल की सलाखों के पीछे हैं, उस स्थिति में मतदाता से समर्थन की उम्मीद लगाना अव्यावहारिक होता।

केरल में भी कांग्रेस ने कुछ बचकानी हरकतें की। राहुल गांधी की ओर से केरल के मुख्य्ामंत्री वीएस अच्य्ाुतानंदन की उम्र पर की गई टिप्पणी से कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है। हालांकि केरल में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा था जिसे कांग्रेस ने भुना नहीं पाया क्योंकि कांग्रंेस की केंद्र सरकार स्वंय 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के कारण किसी को कटघरे मे खड़ा नहीं कर सकती थी। वैसे भी शीशे के घरों में रहने वाले एकदूसरे के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते हैं।

असम में कांग्रेस का लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटने केा बड़ी घटना नहंी कहा जा सकता है।क्योंकि राज्य में विपक्ष की स्थिति बहुत कमजोर है। बीजेपी का आधार सीमित है और असम गण परिषद अपने राजनैतिक अंतरविरोधों से बाहर निकलने और अपना पुराना आधार फिर से अर्जित करने में नाकाम रही है। असम की जनता के लिए मौजूदा हालात में अलगाववाद का मुद्दा बीजेपी के बांग्लादेशी नागरिकों के मुद्दे से ज्यादा महत्वपूर्ण है। उल्फा, बोडो और दूसरे उग्रवादियों के हाथों हजारों निर्दोष नागरिकों को खोने वाले असम को अब हिंसा और अस्थिरता से मुक्ति चाहिए। कई साल की नाकामियों के बाद तरुण गोगोई सरकार उग्रवादी गतिविधियों को नियंत्रित करने में सफल हुई है। उल्फा के साथ सुलह के संदर्भ में हाल के महीनों में कुछ बड़ी कामयाबियां हासिल हुई हैं जिन्होंने इस समस्या के स्थायी समाधान की उम्मीद जगाई है। वहां बिखरे हुए विपक्ष और उग्रवाद विरोधी कामयाबियों ने मतदाता के फैसले को प्रभावित किया है।