जाहिर है छवि नुकसान की आंच कांग्रेस को लग रही है। चुनाव के नतीजों में कांग्रेस अपनी छवि की बेहतरी देखने की उम्मीद कर रही थी। अभी से 6 महीने क्या 3 महीने तक माना जा रहा था कि पांचों राज्यों में कांग्रेस और उसके सहयोगियों की सरकार बनेगी। तमिलनाडु में रामदौस के पीमएके को अपने खेमे में लांकर करुणानिधि ने 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले वाले समीकरण से भी अपना नया समीकरण ज्यादा मजबूत कर लिया था। करुणानिधि और कांग्रेस को उम्मीद थी कि भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद जीत उन्हीं की होगी। केरल मे तो लोकसभा चुनाव के बाद स्थानीय चुनावों में भी कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्चे को जबर्दस्त जीत मिली थी और वहां भी कांग्रेस एक शानदार जीत की उम्मीद कर रही थी। पुदृचेरी में कांग्रेस की सरकार थी। वहां का समीकरण तमिलनाडु के समीकरण से मेल खाता है। इसलिए वहां भी कांग्रेस को अपनी सरकार फिर से बनती दिखाई पड़ रही थी।

लेकिन तमिलनाडु और पुदुचेरी कांग्रेस और उसके सहयोगियों के हाथ से निकल चुके हैं और केरल में भी कांग्रेस को ऐसी जीत मिली है, जिससे वह अपने आपको बहुत तसल्ली नहीं दे सकती। सीपीएम के बीच जबर्दस्त गुटबाजी थी। पार्टी की राज्य समिति ने तो मुख्यमंत्री अच्युतानंदन तक का टिकट काट दिया था। केन्द्रीय नेताओं के हस्तक्षेप के बाद ही उन्हें टिकट मिला। इस तरह के कलह के बाद भी कांग्रेसी मोर्चे को नाम मात्र का ही बहुमत मिला। वह बहुमत भी उसके कारण नहीं बल्कि सहयोगी मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस (मणि) के कारण मिला। कांग्रेस ने वहां 82 उम्मीदवार खड़े किए थे, जिनमें मात्र 38 ही जीते। यानी कांग्रेसी उम्मीदवारों का बहुमत चुनाव हार गया। मस्लिम लीग के 25 में से 20 जीते और केरल कांग्रेस (मणि) के 15 में से 9 जीते। जाहिर है, वहां कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ को बहुमत मिलने जा रहा है, वह उसके कारण नहीं, बल्कि मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस (मणि) के कारण मिला है। ये दोनों पार्टियां सांपद्रायिकता की राजनीति ेकरती है। मुस्लिम लीग मुस्लिम सांप्रदायिकता और मणि गुट ईसाई सांपद्रायिकता के भरोसे चुनाव जीतती है। कांग्रेस को भी मुस्लिम बहुल इलाको में ही सफलता ज्यादा मिली है।

इन तीनों राज्यों में कांग्रेस का खराब प्रदर्शन का एक ही कारण हो सकता है और वह कारण है पिछल्र कई महीनों से भ्रष्टाचार के मसले पर कांग्रेस के ऊपर एक के बाद एक हो रहा आक्रमण। विपक्षी पार्टियों के सामने ही नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के सामने भी कांग्रेस को कई बार इस मसले पर असहज स्थिति का सामना करना पड़ा है। इसका असर जनमानस पर पड़ रहा है और कांग्रेस की छवि एक ऐसी पार्टी की बन रही है, जो भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए चिंतित नहीं है। इसके कारण ही केरल तक में कांग्रेस को अनेक सीटों पर हार का मुह देखना पड़ा है। इसके कारण कांग्रेस अब शायद यह नहीं कह पाएगी कि भ्रष्टाचार से संबधित उस पर लगाए जा रहे आरोपों को जनता ने खारिज कर दिया है।

कांग्रेस के लिए सबसे खुशी संभवतः पश्चिम बंगाल की सफलता पर हो रही होगी। वहां वह 34 साल के बाद सत्ता मे होगी। लेकिन पश्चिम बंगाल की जीत कांग्रेस की जीत कम है और ममता बनर्जी की ज्यादा। कांग्रेस वहां एक जूनियर पार्टनर थी और ममता की शर्तो पर ही चुनाव गठबंधन में उनके साथ थी। वहां ममता की पार्टी को अपने बूते भी बहुमत हासिल हो गया है, इसलिए थोड़ा संदेह यह भी होता है कि कहीं ममता खुद अपनी पार्टी की सरकार बना ले, हालांकि इसकी संभावना बहुत ही कम है। फिर भी तृणमूल कांग्रेस का अपने बूते बहुमत में होना कांग्रेस के लिए सिरदर्द का कारण बना रह सकता। केन्द्र की सरकार बचाने के लिए कांग्रेस तो ममता के सांसदों पर निर्भर रहेगी, पर ममता अपनी सरकार के लिए कांग्रेस पर निर्भर नहीं रहेगी। जाहिर है अपने राज्य के तेज विकास के लिए वह केन्द्र से जो पैकेज मांगेगी, उसे नजर अंदाज करना कांग्रेस के लिए संभव नहीं होगा। ममता बनर्जी ने पूंजीवादी ही नहीं, बल्कि समाजवादी रुझान वाले लोगों को भी अपने नजदीकी राजनैतिक सलाहकार बना लिया है, इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता कि केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों पर वह कब क्या रुख अपनाने लगेगी। जाहिर है ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद केन्द्र सरकार की सांस थोड़ी और तेज हो जाएगी।

पश्चिम बंगाल में भ्रष्टाचार कोई मसला ही नहीं बन सका, क्यांेंकि वहां वाम दलों के सामने की चुनौती ममता थीं, जिन पर भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं हैं और जिनका केन्द्र सरकार द्वारा भ्रष्टाचार के मामले से निबटने के तरीको से कोई लेना देना भी नहीं है। इसलिए पश्चिम बंगाल की जीत को कांग्रेस अपने ऊपर चलाए जा रहे भ्रष्टाचार के आरोप के बाणो के खिलाफ ढाल के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकती।

असम को यदि कहीं सबसे बड़ी सफलता मिली है तो वह असम है। वहां कांग्रेस के तरुण गोगोई लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेकर राज्य में एक नया इतिहास बनाएंगे। इस पूर्वात्त्र राज्य में कांग्रेस की विजय अपने बूते हुई है और इसके लिए यदि किसी एक व्यक्ति को श्रेय देना होगा, तो वे होंगे वहां के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई, जिन्होंने उल्फा अतिवादियों को बातचीत की मेज पर लाने में सफलता पाई और राज्य के लोगों को यह अहसास करा दिया है कि राज्य में अमन चैन का राज हो सकता है। वहां विपक्ष बहुत बिखरा हुआ था। भाजपा और असम गण परिषद का जनाधार एक ही है, पर वे अलग अलग चुनाव लड़ रहे थे। उनके बिखराव का फायदा तो कांग्रेस को मिला ही, शांति प्रयासों को आगे बढ़ाने में तरुण गोगोई सफलता भी कांग्रेस के काम आई। असम में उल्फा और बोडो उग्रवाद की समस्या है। लोगों को लगा कि कम से कम उल्फा उग्रवाद से राहत पाने के लिए गोगोई की सरकार का एक और कार्यकाल जरूरी है। राजनैतिक अस्थिरता उल्फा उग्रवाद की संभावित शांति की संभावना को असंभव बना देती। यही कारण है कि राज्य के लोगों ने कांग्रेस को वहां तीसरी बार सरकार बनाने का मौका दिया है। (संवाद)