जयललिता और विजयकांत के साथ उनका गठजोड़ एक आंधी की तरह पूरे प्रदेश मंें आच्छादित हो गया है। कुल 234 स्थानों मेे से अन्नाद्रमुक ने अकेले 150 एवं सहयोगियों के साथ 202 स्थान जीते हैं। द्रमुक अकेल 23 तथा सहयोगियों के साथ 30 स्थान तक सिमट गया। कांग्रेस ने दबाव डालकर 63 सीटें ली, लेकिन वह केवल पाचं जीत सकी। द्रमुक के प्रमुख नेताओं में तिरुवरुर से एम. करुणानिधि एवं उनके पुत्र एम. के. स्टालिन चेन्नई के कोलातूर से विजीत होने के अलावा ज्यादातर प्रमुख नेता इस आंधी में उड़ चुके हैं। मंत्रियांे का पूरा समूह पराजय की गर्त में चला गया। एक से एक स्टालवार्ट उड़ गए। करुणानिधि के उम्र को देखते हुए उनके लिए यह अंतिम चुनाव था। इस प्रकार की बुरी पराजय से अपने राजनीतिक जीवन के अंत की कल्पना उन्होंने कभी नहीं की होगी। द्रमुक के लिए इस पराजय का दंश इसलिए कहीं ज्यादा संघातिक है। प्रश्न है कि द्रमुक की पराजय हुई क्यों?

तमिलनाडु में पिछले तीस वर्षों से किसी सरकार को दोबारा जनादेश नहीं मिला है। इस स्थापित राजनीतिक परंपरा के अनुसार 2011 में अननाद्रमुक की ही बारी थी। किंतु चुनाव या राजनीतिक घटनाक्रम प्रकृति के मौसम या दिन रात का चक्र नहीं है जो स्वाभाविक रूप से बदल जाए। फिर तो किसी प्रकार की चुनावी रणनीति बनाने एवं सधन अभियान चलाने की आवश्यकता ही नहीं। वास्तव में चुनाव परिणाम पराजय एवं विजय के निश्चित कारणांे के संयोग की परिणति होती हैं। तमिलनाडु इसका अपवाद नहीं है। यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि द्रमुक कांग्रेस गठजोड़ भ्रष्टाचार के आरोपों की भेंट चढ़ गया। द्रमुक का एक प्रमुुख नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले मंे जेल के अंदर हो, मुख्यमंत्री करुणानिधि की पुत्री कन्निमोड़ी पर आरोपों का शिकजा कस चुका हो और पार्टी दोबारा सत्ता में वापस आ जाए तो इसे केवल एक त्रासदी भरा चमत्कार ही माना जाता। इसलिए तमिलनाडु में द्रमुक गठजोड़ की पराजय और जयललिता की अन्नाद्रमुक गठजोड़ की विजय कतई अप्रत्याषित नहीं है। हालांकि जयललिता भ्रष्टाचर के विरुद्ध सदाचार की प्रतीक नहीं हैं, लेकिन इस समय शासन में द्रमुक था एवं भ्रष्टचार का आरोप उसके नेताओें ही नहीं, शासक परिवार पर था। जयललिता ने नारा दिया भ्रष्टाचार मिटाओ, परिवारवाद हराओ और कह सकते हैं कि जनता को यह नारा अपील कर गया।

लेकिन जयललिता को इतनी बड़ी सफलता मिल जाएगी इसकी उम्मीद कम ही लोगों को थी। चुनाव बाद सर्वेक्षणों में उनकी बढ़त दिखाई गई थी, लेकिन सीटों की संख्या देने में अत्यधिक सावधानी बरती गई। दोनों गठजोड़ के मतांे पर नजर दौड़ाइए। अन्नाद्रमुक गठजोड़ को लगभग 54 प्रतिशत मत मिला है, जबिक द्रमुक गठजोड़ को लगभग 39 प्रतिशत। अन्नाद्रमुक को यदि 6 प्रतिशत का लाभ हुआ है तो द्रमुक को 7 प्रतिशत की हानि। इतने की हानि एवं बढ़ोत्तरी तथा 15 प्रतिशत के अंतर का चुनावी अंकगणित इसके अलावा क्या हो सकता है। इतने मतों का ध्रुवीकरण असाधारण है। जब किसी के विरोध एवं पक्ष में आंधी चलती है तो मत वैसे ही एक पक्ष में झुकता जाता है और फिर परिणाम ऐसा ही आता है। चुनाव की घोषणा के बाद 2 जी स्पेक्ट्रम की ज्चालामुखी की लपटें करुणानिधि के घर तक पहुंचने के बाद स्वयं उस परिवार एवं कार्यकताआंे के मनोबल पर कितना विपरीत असर हुआ यह वहां जाने वाला कोई भी महसूस कर सकता था। इसमें शत-प्रतिशत प्रभावी चुनाव अभियान संभव नहीं था। इसमें द्रमुक और कांग्रेस गठजोड़ का जमीनी स्तर पर सुसंगत नहीं होना कोढ़ में खाझ साबित हुआ। यह नहीं भूलिए कि कांग्रेस के नेताओं ने दिसंबर महाधिवेषन के दौरान द्रमुक से गठजोड़ तोड़ने की मांग की थी। इसमें इनके बीच स्वाभाविक तालमेल हो ही नहीं सकता था। कांग्रेस द्वारा दबाव डालकर 63 सीटें लेना भी अनुचित था। वह 58 स्थानों पर हारी। इस प्रकार गठजोड़ की पराजय में कांग्रेस की बड़ी भूमिका है। कांग्रेस के ज्यादा सीटें लेने के कारण गठजोड़ के दूसरे समूह पीएमके भी असंतुष्ट था।

दूसरी ओर जयललिता ने विजयकांत एवं वामदलों के साथ गठजोड़ किया जिसके सामने प्रदेश में सत्तारुढ़ घटक की तरह कोई राजनीतिक चुनौती नहीं थी। विजयकांत की लोकप्रियता पिछले विधानसभा चुनाव से लोकसभा चुनाव तक प्रमाणित हो चुकी थी। हालांकि जयललिता एवं विजयकांत के बीच भी निजी स्तर पर विश्वास एवं तालमेल का अभाव था। यहां भी असंगति थी, किंतु जमीनी स्तर पर द्रमुक-कांग्रेस हराओ के माहौल के कारण इनके बीच एकता निर्मित हुई और वोटिंग मशीनों तक इनका एकजुट मत गया। चुनाव परिणामों के विश्लेषण से साफ है कि इन दलों के मत एक दूसरे के उम्मीदवारों को स्थानांतरित हुए हैं। खासकर विजयकांत का करीब 10 प्रतिशत मत अन्नाद्रमुक के खाते में जुड़ा। माकपा को 10, भाकपा को 9 एवं फारवर्ड ब्लॅाक को एक यानी वाममोर्चा को 20 सीटें मिलना अकारण नहीं है। जयललिता का स्वभाव देखते हुए इस गठजोड़ के लंबा खींचने की भविष्यवाणी पूरी तरह जोखिम भरी है। हालांकि उन्होंने गठजोड़ कायम रखने का ऐलान किया है, लेकिन उन्हें अकेले सरकार बनाने योग्य बहुमत मिल चुका है, इसलिए किसी घटक की आवश्यकता उन्हें नहीं है। पिछले चुनाव में द्रमुक कांग्रेस ने साथ चुनाव लड़ा लेकिन जीत के बाद द्रमुक ने अकेले सरकार बनाई। हो सकता है उसी की पुनरावृत्ति हो। संसदीय लोकतंत्र में किसी राज्य से विपक्ष की अनुपस्थिति स्वस्थ स्थिति नहीं मानी जा सकती। विपक्ष का संतुलनकारी दबाव सरकार पर होना अत्यावश्यक है, जयललिता जैसी निरंकुष प्रकृति की महिला के संदर्भ में तो इसकी अपरिहार्यता स्वयंसिद्ध है, किंतु मतदाताओं ने ऐसा जनादेश नहंीं दिया तो किया क्या जा सकता है। हालांकि जयललिता एवं एम. करुणानिधि के बीच तीखे संबंधों को देखते हुए यह इस मायने में तमिलनाडु के लोगों के लिए राहत की बात है कि जयललिता अकेले अपने गठजोड़ की बदौलत शासन चला सकंेगी। उन्हंे किसी विधेयक को पारित कराने के लिए द्रमुक की आवश्यकता नहीं होगी, अन्यथा क्या स्थिति होती इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।

इस चुनाव परिणाम के साथ यह प्रश्न काफी शिद्दत से उठ रहा है कि अब द्रमुक का भविष्य क्या होगा। करुणानिधि युग का अंत हो रहा है। जाहिर है, द्रमुक अब नए नेतृत्व के हाथों आएगा। नए नेतृत्व में एक नई प्रकार की ताजगी भी होगी। किंतु पराजय के बाद उनके परिवार के भीतर सत्ता संघर्ष की संभावना दिख रही है। स्टालिन एवं अझागिरी के बीच तालमेल का अभाव पहले से है। करुणानिधि द्वारा स्टालिन को उत्ताधिकारी बनाए जाने से वे वैसे ही असंतुष्ट हैं। चुनावी पराजय की स्थिति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई का डंक एवं करुणानिधि की विरासत का फैसला आदि ऐसी चुनौतियां द्रमुक के सामने उपस्थित हुईं हैं जिनका हल उसे निकालना होगा। उम्र के कारण करुणानिधि के प्रभाव में कमी ने इस चुनौती को और बढ़ा दिया है। अगर चुनाव में विजय मिली होती तो इन चुनौतियों से पार पाना कहीं आसान होता। जयललिता के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने से इसमें एक और आयाम जुड़ गया है। उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई का जो ऐलान किया है उसका व्यावहारिक अर्थ हम पहले भी करुणानिघि सहित कई नेताआंे की गिरफ्तारी के रूप में देख चुके हैं। वे बदले की राजनीति करने वाली नेत्री हैं। क्या करेंगी कहना कठिन है। इसलिए इस समय द्रमुक के भविष्य के बारे में किसी प्रकार की भविष्यवाणी जोखिम भरी होगी। इस समय इतना कहा जा सकता है कि उसके सामने चुनौतियां काफी बढ़ गई हैं।
(संवाद)