वाम लोकतांत्रिक मार्चे की हार में उसकी जीत निहित है। इसका कारण यह है कि उसकी हार निश्चित मानी जा रही थी। 2009 के लोकसभा चुनाव में 20 में से मात्र 4 सीटों पर ही उसके उम्मीदवार जीते थे। पिछले साल हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में भी वाम लाकतांत्रिक मोर्चा की करारी हार हुई थी। उसके बाद यह निश्चित लगने लगा था कि विधानसभा चुनाव में भी वह भारी अंतर से हारेगा।
लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं। 140 सीटों वाली विधानसभा में उसे 68 सीटें मिलीं, जबकि जीत हासिल करने वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे को 72 सीटों पर विजय हासिल हुईं। राज्य की राजनीति के लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। और इस चमत्कार के लिए यदि कोई एक व्यक्ति को श्रेय जाता है, तो वे हैं पूर्व मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन, जो 87 साल की उम्र के होने के बाद भी चुनाव अभियान में सबसे आगे थे।
अच्युतानंदन तो इस बार केरल का इतिहास ही बदलते दिखाई पड़ रहे थे। उनकी सभाओं में भारी भीड़ उमड़ रही थी। उनकी सभाओं के सामने सोनिया और राहुल की सभाएं फीकी पड़ रही थीं। उसे देखते हुए निष्पक्ष विश्लेषक कठिन मुकाबले की भविष्यवाणी कर रहे थे।
आखिर यह चमत्कार हो क्यों रहा था? इसका कारण यह था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल के बीच अच्युतानंदन की छवि भ्रष्टाचार से लड़ने वाले एक योद्धा की है। उनकी यही छवि लोगों को रास आ रही थी, हालांकि पार्टी से उनको जो मदद मिलनी चाहिए थी, वह उन्हें नहीं मिल रही थी। पार्टी उनके अनुसार चल भी नहीं रही थी।
यह सीपीएम की त्रासदी ही कही जाएगी कि जिस नेता के नाम पर वह चुनाव जीतने की उम्मीद कर सकती थी, उसका टिकट ही उसने काट दिया था। बाद में पार्टी के पोलित ब्यूरों ने उनका टिकट सुनिश्चित करवाया। पार्टी के ंअंदर जो उनके विरोधी थे, वे चुनाव प्रचार के दौरान उनकी सहायता लेने के लिए सबसे ज्यादा बेचैन दिख रहे थे।
दरअसल सीपीएम के अंदर की राजनीति अच्युतानंदन को कमजोर कर रही थी। पार्टी के प्रदेश सचिव पी विजयन के साथ उनकी नहीं बन रही थी। पार्टी महासचिव प्रकाश करात भी उन्हें नहीं चाहते थे। यही कारण है कि मुख्यमंत्री को पार्टी की सर्वोच्च समिति पोलित ब्यूरों से भी निकाल दिया गया था। पार्टी ने उन्हें अपमानित करने का कोई मौका नहीं गंवाया। इसके बावजूद अच्युतानंदन ही पार्टी के काम आए।
दूसरी तरफ कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त वाम मोर्चा अपने अनुमान में गलत साबित हुआ। उसे उम्मीद थी कि वह लोकसभा के नतीजों की पुनरावृति करने में सफल हो जाएगा। लेकिन वैसा हुआ नही। उस मोर्चे को वाम मोर्चे से मात्र 4 सीटें ही ज्यादा आई और 1 लाख 48 हजार मज ही ज्यादा मिले। बहुमत के लिए 71 सीटें चाहिए थीं। विजयी मोर्चे को मात्र 72 सीटें ही मिलीं।
विजयी मोर्चे में कांग्रेस की स्थिति खासकर बहुत खराब रही। कांग्रेस ने 82 उम्मीदवार खड़े किए थे। उनमें से मात्र 38 जीते। यानी अपने आधे उम्मीदवारों को जीताने में भी कांग्रेस सफल नहीं रही। सत्तारूढ़ होनंे के बाद भी कांग्रेस विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी नहीं होगी। उसकी 38 सीटों के मुकाबले सीपीएम के पास विधानसभा में 47 सीटें हैं।
कांग्रेसी मोर्चे की जीत मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस के मणि गुट के कारण ही संभव हो सकी। मुस्लिम लीग के 25 उम्मीदवार थे। उनमें से 20 जीते। मणि गुट के 15 थे, उनमें 9 जीते। कांग्रेस की जीत भी उन्हीे इलाकों में ज्यादा हुई, जहां मुसलमानों और ईसाइयों की संख्या ज्यादा थी। गौरतलब है कि मुस्लिम लीग मुसलमानों की राजनीति करती थी और मणि गुट ईसाइयों की राजनीति करता है। यानी कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्चे की जीत के पीछे सांप्रदायिकता की राजनीति का हाथ है। यह तथ्य कांग्रेस की प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाला नहीं है।
मुस्लिम लीग और मणि गुट को इस बात का अहसास है कि मोर्चे की जीत के पीछे उनका हाथ है। मोर्चे के अंदर उनके विधायकोे की संख्या का अनुपात भी बेहतर है। जाहिर है, वे मोर्चे के अंदर जूनियर पार्टनर भी भूमिका मात्र से संतुष्ट नहीं होने वाले हैं। बहुमत बहुमत छोटा है, इसलिए एक बहुत ही छोटा असंतोष भी नव निर्मित सरकार की स्थिरता को भंग कर सकती है। यानी आने वाले दिन कांग्रेस और उसकी बन रही सरकार के लिए कठिन होंगे। (संवाद)
केरल में वाम लोकतांत्रिक मोर्चे की हार
कांग्रेस के लिए आने वाले दिन आसान नहीं होंगे
पी श्रीकुमारन - 2011-05-17 10:44
तिरुअनंतपुरमः केरल में इस बार ऐसा चुनाव नतीजा आया, जैसा पहले कभी नहीं आया था। जिसकी सरकार वहां होती थी, उसकी हमेशा हार होती थी। इस बार भी हार हुई है, पर पहले हमेशा हार स्पष्ट होती थी और जीतने वाला मोर्चा आरामदायक बहुमत के साथ जीतता था। पर इस बार मुकाबला बराबरी का रहा और जीतने वाले मोर्चे को मात्र एक विधायक का बहुमत प्राप्त हुआ है।