मुख्य विपक्षी असम गण परिषद ने 4 नेताओं की एक समिति बना दी थीख् जिन्हें भाजपा के साथ बात करने के लिए अधिकृत कर दिया गया था। भाजपा भी गठबंधन सरकार में अपनी भागीदारी की तैयारी करने लग गई थी। भाजपा ही नहीं, कांग्रेस को भी लग रहा था कि कहीं राज्य विधानसभा त्रिशंकु न हो जाए। इसलिए आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ उसके नेताओं ने भी बातचीत करना प्रारंभ कर दिया था। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने फ्रंट के नेता अजमल के साथ दिल्ली के उनके निवास पर 9 मई को मुलाकात भी की थी। फ्रंट ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने के संकेत भी दे डाले थे।

पर जब चुनाव के नतीजे सामने आए, तो साफ हो गया कि किसी प्रकार के गठबंधन सरकार की कोई जरूरत ही नहीं। कांग्रेस को खुद 78 सीटें हासिल हो गई थीे, जबकि बहुमत के लिए 126 क्षेत्रों वाली विधानसभा में मात्र 64 सीटों की ही दरकार थी। इसके अलावे इसके सहयोगी बाडो पीपुल्स फ्रंट को भी 12 सीटें हासिल हो गईं। 18 सीटें उस फ्रंट को मिली, जिसके साथ मिलकर सरकार बनाने की कांग्रेस सोचने लगी थी।

पर अब न तो किसी प्रकार के मोर्चे की जरूरत है और न ही किसी प्रकार के गठबंधन की, क्योंकि कांग्रेस को विधानसभा में साफ साफ बहुमत मिल गया है। कांग्रेस की जीत के साथ साथ ही विरोधी पार्टियों के लिए नतीजे अन्य कारणों से भी काफी दिलचस्प मायने रखते हैं। पिछली विधानसभा में असम गण परिषद सबसे बड़ा विपक्षी दल था। इसके पास 25 सीटें थीं, लेकिन अब वह घटकर 10 हो गई है। पार्टी के नेता भूतपूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल कुमार महंता खुद एक सीट से अपना चुनाव हार गए, हालांकि वे एक अन्य सीट से चुनाव जीत भी गए हैं।

भाजपा को पिछली विधानसभा में कुल 10 सीटें मिली हुई थी। इस बार उसे मात्र 5 सीटें ही हासिल हुईं। जाहिर है, बांग्लादेश के शरणार्थियों को मुद्दा बनाकर राजनीति करने वाली दोनों पार्टियों की लोगों में पैठ काफी घट गई है। इन दोनों पार्टियों के लिए एक बड़े झटके की बात यह भी है कि आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट अब मुख्य विपक्षी पार्टी बन गई है, जिसे विधानसभा में 18 सीटें मिल गई हैं। यह एक सेक्युलर फ्रंट है, लेकिन इसका मुख्य आधार मुसलमान हैं, जिनकी आबादी राज्य की कुल आबादी का 30 फीसदी है।

आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का मुख्य विपक्षी दल बनना कांग्रेस के भविष्य की राजनीति के लिए भी परेशानी का सबब बन सकता है। इसका कारण यह है कि कांग्रेस का मूल आधार भी मुसलमान ही रहा है। इस बार तो आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट को मात्र 11 फीसदी वोट ही मिले हैं। जाहिर है, मुसलमानों का ज्यादातर वोट कांग्रेस को ही मिल हैं, लेकिन आने वाले दिनों में स्थिति पलट भी सकती है। इसलिए मुख्य विपक्ष की भूमिका से असम गण परिषद का हट जाना आने वाली राजनीति में कांग्रेस के लिए भी नुकसानदासयक बन सकता है।
वाम मोचे का तो इस बार असम में सफाया ही हो गया। किसी भी वामपंथी पार्टी का खाता यहां नहीं खुला है। पिछली विधानसभा में सीपीएम के पास दो सीटें थीं, जबकि सीपीआई के पास एक सीट। इस बार वो भी नहीं रही। इसका कारण है कि वामपंथी दल राज्य में बहुत कमजोर हो गए हैं।

आखिर कांग्रेस को इतनी भारी जीत मिली कैसे? एक कारण तो विपक्षी पार्टियों का बिखराव माना जा रहा है, लेकिन सबसे बड़ा कारण उल्फा के साथ चल रही शांति वार्ता है। राज्य में उल्फा का आंदोलन एक बड़ी समस्या रही है। इसके कारण हिंसा बहुत ही आम हो गई थी। मुख्यमंत्री तरुण गागोई वार्ता की मेज पर उल्फा नेताओं को लाने में सफल हुए हैं। उल्फा नेताओं के बीच बातचीत के लिए एक तरह की राय नहीं हैं। मुख्य कमांडर पेरश बरुआ वार्ता के खिलाफ हैं, लेकिन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई उन्हें उल्फा के अंदर भी अलग थलग करने में सफल रहे। उसके साथ बातचीत की सफलता के लिए वर्तमान गोगोई सरकार का दुबारा सत्ता में आना राज्य की जनता ने जरूरी समझा और यही कारण है कि कांग्रेस की भारी जीत हुई। (संवाद)