भूमि सुधार को एक नया स्थाई बंदोबस्त तक कहा गया था। उस क्रांति ने पश्चिम बंगाल में सीपीएम को लगातार 34 सालों तक सत्ता में बनाए रखा। यह अपने किस्म का एक रिकार्ड है, जहां एक ही पार्टी लगातार इतने सालों तक लोगों से चुनकर सरकार में बनी रही हो। पर दुर्भाग्य से सीपीएम ने भूमि सुधार से आगे कुछ किया ही नहीं। उसी के बूते सत्ता में बनी रही और फिर ऐसी राजनीति की जो उससे मेल नहीं खाती थी। राजनीति में फंसकर उसने विकास के कामों को नजरअंदाज कर दिया। उसके कारण बंगाल लगातार आर्थिक और औद्योगिक पतन की ओर बढ़ता रहा और अंत में वहां की जनता ने ऊबकर उसकी सरकार को हटा देना ही बेहतर समझा।

वहां की सीपीएम सरकार इस मंत्र में विश्वास करती रही कि विकास दर से ज्यादा महत्वपूर्ण विकास के फल का बंटवारा है। यानी विकास के फल का समान बंटवारा उसके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था। लेकिन समान बंटवारा से उसका मतलब हड़ताल, बंद, प्रदर्शन, घरना और घेराव था। दो दशकों तक तो वहां यही होता रहा और इसके कारण वहां से उद्योग भागते रहे और उद्यमशीलता मरती रही।

पश्चिम बंगाल के कामरेड ने सोवियत संध के पतन से भी किसी प्रकार की सीख नहीं ली, जिसका इस नीति के कारण पतन हो गया था। उन्होंने चीन से भी कोई सबक नहीं ली, जिसने मार्क्सवाद को नए परिप्रेक्ष्य में रखकर अपना तेज विकास किया और आज विश्व की एक महाशक्ति के रूप में अपने आपको स्ािापित करने मे सफल रहा है।

बंगाल के कामरेड कम्युनिस्ट मेनिफेस्टों की उन पंक्तियों को भी भूल गए, जिनमें उन्होंने कहा था कि आर्थिक संरचना ही मूल संरचना होती है। आर्थिक संबंध मूल संबंध होते हैं और उनके ऊपर सामाजिक व राजनैतिक सुपर स्ट्रक्चर खड़े होते हैं। जाहिर है वहां कामरेड ने मूल संरचना पर घ्यान देना ही बंद कर दिया और उसकी जगह राजनीति को ज्यादा महत्व दिया। इय तरह से वे मार्क्सवाद के मूल सिद्धातों के भी खिलाफ चल रहे थे।

चुनावो मे वामपंथी दलों को बड़ी सफलता मिला करती थी। उनके हाथ में अकूत राजनैतिक पावर थी, लेकिन उन्होंने उसका इस्तेमाल आर्थिक क्रांति लाने में किया ही नहीं। 34 साल का समय कोई कम समय नहीं होता है। इस दौरान तो बहुत कुछ किया जा सकता था। चीन ने ऐसा करके दिखा भी दिया है। लेकिन इसके लिए मार्क्स को वर्तमान संदर्भ में समझकर अपनी रणनीति बनानी चाहिए थी, लेकिन वहां के कामरेड सत्ता में इतना मस्त हो गए कि आगे उन्हें कुछ दिखाई ही नहीं दिया।

उन्होंने राजनैतिक सत्ता के केन्द्रों पर अपनी पार्टी को बैठाने का काम करना प्रारंभ कर दिया। नौकरशाही में भी अपने प्रभाव को बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। जहां कहीं भी संभव हो, वे सत्ता पर काबिज होने लगे। सत्ता पर काबिज होना ही उनका मूल मंत्र हो गया। इस क्रम में वे राज्य का विकास ही भूल गए। गांवों में भूमि सुधार के बाद जो माहौल बना है, उसे नगरों और महानगरों में लग जाने की उन्होंने कोशिश की ही नहीं। बाद में औद्योगिक विकास के लिए सिंगूर और नंदीग्राम मं कोशिशें हुईं, तो उनमें भी अनेक किस्म की रणनीतिक भूल कर दी गईं।

प्रकाश करात के नेतृत्व ने भी पार्टी का बेड़ा गर्क कर दिया। उनके पहले हरकिशन सिंह सुरजीत पार्टी के महासचिव थे। वे व्यावहारिक राजनीति करते थे, लेकिन प्रकाश करात की राजनीति में बौद्धिकता झलकती थी, व्यवहारिकता नहीं। अमेरिका के साथ भारत का परमाणु करार देश के हित में था, लेकिन करात के नेतृत्व में सीपीएम ने उसका विरोध किया। विरोध करते हुए केन्द्र सरकार से समर्थन भी वापस ले लिया और सोमनाथ चटर्जी जैसे पार्टी के नेता को पार्टी से बाहर भी कर दिया। कांग्रेस से संबंध तोड़ना पश्चिम बंगाल में सत्ता खोने का एक बड़ा कारण है, क्योंकि उसके कारण कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का एक साथ आना संभव हुआ और दोनों की एकता के कारण सीपीएम की वहां करारी हार हुई। (संवाद)