अपनी पेंटिग का 20 लाख डॉलर मूल्य पाकर इतिहास रचने वाले मकबूल फिदा हुसैन के रूप में एक कलाकार को जितना आम समर्थन और विरोध झेलना पड़ा वह भी अतुलनीय था। जाहिर है, उनके कूचे और रंगों से संयोजन से उभरनेवाली आकृतियां निष्प्राण नहीं होकर बड़े वर्ग के विचारों को उत्तेजित करने वाली थीं। किसी कलाकार की जीवंतता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है। हुसैन की पेंटिग के तटस्थ विश्लेषक यूरोपीय आधुनिकवाद को उत्तर औपनिवेशिक विन्यास के साथ विलयन करने वाली अनोखी कला प्रतिभा का उदाहरण मानते हैं।

1947 में एफ. एन शुजा द्वारा स्थापित प्रोग्रेसिव आर्ट मूवमेंट से जुड़ने वाले हुसैन ने 1960 के दशक में धारदार बनाकर कला के क्षेत्र में परंपरा के विरुद्ध विद्रोह की शुरुआत कर दी। यह बंगाल धारा की राष्ट्रवादी परंपरा से कला को बाहर निकालने का विद्रोह था। वह समय सृजन की हर विधा में, चाहे वह साहित्य रचना हो, या अकादमिक पुस्तकों की, वामपंथी विचारधारा पर आधारित नव रोमांसवादी विद्रोह का दौर था। इससे पेंटिग की नई जुबान की शुरुआत हुई और परंपरागत राष्ट्रवादी रेखा लांघने की सोच वाले नवजवानों को एक ऐसी छतरी प्राप्त हुई, जिसमें उनकी विद्रोही कल्पनाएं रंगों और कूचों के साथ साकार होने लगीं। स्वाभाविक ही इसके विरूद्ध भी स्वर उठना था और हुसैन अंतिम दिनों तक इसका निशाना बने रहे। यद्यपि प्रगतिवादी आंदोलन की धार धीरे-धीरे कुंद हुई और उस दौर के झंडाबरदारों की कलम, कूची और कृतियों के स्वर बदले, लेकिन तमाम विरोध को झेलते हुए एक बार उस दिशा में कदम बढ़ाने के बाद वे अंतिम सांस तक उस पर डटे रहे।

सिनेमा का होर्डिंग्स बनाकर अपनी पेंटिंग की शुरुआत करने वाले हुुसैन ने स्वयं भी नहीं सोचा होगा कि कूची से रंगों के संयोजन की उनकी प्रतिभा उन्हें एक दिन भारतीय कला कैनोपी के शीर्ष पर पहुंचाएगी और वे पंेटिंग के पर्याय हो जाएंगे। इसमें दो राय नहीं कि प्रगतिवादी आंदोलन से जुड़ाव के कारण उनकी कला बड़े वर्ग के वैचारिक आकर्षण का कारण बनी। किसी कलाकार को एक दौर की विचारधारा का समर्थन मिले तो उसकी जन ख्याति तो होनी ही थी। किंतु दूसरी ओर हिन्दू देवी देवताओं के चित्रणों से असहमत होने वाले वर्ग के वे निशाने पर भी आ गए। इस प्रकार का वैचारिक मतभेद अकल्पनीय नहीं था और एक खुले समाज में ऐसे तीव्र मतभेदों के लिए हमेषा जगह होनी चाहिए। इससे सृजन जीवंत होता है, किंतु हुसैन को भी इसकी कल्पना नहीं रही होगी कि यह विरोध इतना तीव्र हो जाएगा कि उन्हें मुकदमों से बचने के लिए किसी दूसरे देश में आत्मनिर्वासन का जीवन जीना होगा। हालांकि आरंभ में जितना उनको निषाना बनाया गया उतनी ही उनकी ख्याति भी बढ़ती गई और 1990 के दशक के आंरभ में इस पर झुंझलाने की बजाय वे विभोर ही होते रहे। धीरे-धीरे उन पर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करने के मुकदमे दर्ज होने लगे और न्यायालय में उपस्थित न होने के कारण उनके खिलाफ गैर जमानती वारंट भी जारी हो गया। उन्होंने बयान दिया कि कानूनी रूप से मामले इतने पेचीदे हो गए हैं कि मुझे घर न लौटने की सलाह दी गई है। हालांकि कुछ बयानों में उन्होंने भारत लौटने की अच्छा जताई, पर ऐसा हो न सका। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि अंतिम समय में उनके अंदर भारत की धरती पर कदम रखने की अवश्य कसक रही होगी।

हम उनकी कृतियों के पीछे निहित कला दर्शन से असहमत हो सकते हैे, परंपरागत विशिष्ट भारतीय कला दर्शन का अभाव भी उनके चित्रणों में है, पर भारतीय पेंटिंग में उनके योगदान को नकारना असंभव है। वे एकमात्र भारतीय कलाकार थे जिन्हें उनकी फिल्म थ्रो द आईज ऑफ अ पेंटर के लिए बर्लिन फिल्म महोत्सव में गोल्डन बियर से सम्मानित किया गया। 1971 में साओ पाउलो द्विवार्षिक कला सम्मेलन में पाब्लो पिकास्सो के साथ विशेष आमंत्रित का दर्जा मिला। उन्होंने अपनी ही धारा बहाई जिसके समर्थक और विरोधी दोनों हैं। खालिद मोहम्मद द्वारा लिखित उनकी आत्मकथा ह्वेयर आर्ट दाउ में आपको उनका जीवन खुली किताब की तरह सामने आ जाता है। जिद्दी और अपने धुन में रमा रहना ही एक सच्चे कलाकार के चरित्र को प्रतिबिम्बित करता है और हुसैन इसके जीवंत मिसाल थे। फिल्म अभिनेत्री माधुरी दीक्षित के प्रति उनका सम्मोहन एक कलाकार की बिन हसरत दीवानगी ही थी। माधुरी को उकेरने के लिए उन्होंने केवल रंग, कूचे और अपने मस्तिष्क का ही उपयोग नहीं किया, नाट्य कला पर आधारित गज गामिनी नामक फिल्म ही बना डाली। बुद्धिजीवी वर्ग के अलावा उस फिल्म को आम दर्शक नहीं मिले, पर हुसैन को इससे कहां फर्क पड़ने वाला था। उन्होंने बाद में तब्बू को भी चित्रित किया एवं अमृता राव पर भी पेंटिंगे बनाईं। भारतीय संस्कृति के व्यक्तित्वों को उकेड़ने की उनकी श्रृंखला में दुर्गा, सरस्वती और सीता से लेकर महाभारत के चरित्र और मदर टेरेसा तक शामिल हैं। हालांकि ये चित्रण ही उनके विरोधियों को उत्तेजित करने वाले साबित हुए, पर उन्हेें अपनी दृष्टि से भारत के इतिहास का क्रमवार चित्रण करने वाला कलाकार भी कहा जा सकता है। वैसे उन्होेने अपना भरपूर जीवन जिया, किंतु ऐसे व्यक्तित्व का जाना और वह भी विदेश मे,ं हम सबके लिए अंदर से हूक पैदा करने वाली घटना है। (संवाद)