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आत्मा

आत्मा जीवधारियों में वह तत्व है जिसकी शाश्वत सत्ता है, जो सर्वत्र व्याप्त है, जो जीव की सृष्टि का मूल आधार है, जो अजन्मा है, जो कभी मरता नही तथा जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता। यह चैतन्य स्वरूप है परन्तु चेतना से अलग। शरीर यदि क्षेत्र है तो यह क्षेत्रज्ञ। शरीर के नष्ट होना या देहान्त होने पर भी आत्मा का अन्त नहीं होता बल्कि उसका पुनर्जन्म होता है, बशर्ते जीवधारी मोक्ष न प्राप्त कर ले। मोक्ष के बाद आत्मा जन्म तथा मृत्यु से मुक्त हो जाती है।

आत्मा का सच्चिदानंद - सत्, चित्, तथा आनन्द - स्वरूप है। इसे ही उपनिषदों में जीवात्मा कहा गया और इससे अलग परमात्मा की सत्ता बतायी गयी, जैसा कि द्वैतवादी कहते हैं। परन्तु कई उपनिषदों में आत्मा तथा परमात्मा को एक ही, अर्थात् अद्वैत बताया गया।

शाब्दिक अर्थ में लें तो आत्मा जीवधारी में अंतर्निहित शाश्वत शक्ति या सार्वभौम चेतन तत्व है।

ज्ञनार्णव तन्त्र में चार आत्माओं का उल्लेख किया गया है। ये हैं - आत्मा, ज्ञानात्मा, अन्तरात्मा, तथा परमात्मा।

आत्मा शब्द का इतिहास

आत्मा शब्द का इतिहास वैदिक काल से प्रारम्भ होता है। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में इसका उल्लेख है। इसकी परिकल्पना परमतत्व के रूप में की गयी।

अविद्या से युक्त होकर यह आत्मा बंध जाता है तथा जीवभाव को प्राप्त होता है, ऐसा भी विचार किया गया है। यही निर्गुण शरीरी होकर सगुण बन जाता है।

निकटवर्ती पृष्ठ
आदर्शवाद, आदर्शवादी, आदर्शीकरण, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद, आदिकाल

Page last modified on Monday May 26, 2025 00:58:01 GMT-0000