दुःख जीवधारियों की वह अवस्था जिसमें वह पीड़ा का अनुभव करता है। सुख की अनुभूति के विपरीत अनुभूति की अवस्था ही दुःख की अवस्था होती है। पाप कर्म ही दुःख का मूल स्रोत है। अविद्या आदि इसके अन्य सहयोगी स्रोत भी हैं।