आर्य समाज
आर्य समाज की स्थापना का श्रेय मुख्य रूप मे महर्षि दयानन्द सरस्वती को जाता है।आर्य समाज की स्थापना की एक लंबी प्रक्रिया रही, परन्तु इतना कहा जा सकता है कि 24 नवम्बर 1874 से परामर्श आरम्भ हुआ था तथा बम्बई (मुम्बई) में उसी समय इसकी स्थापना हो जाती परन्तु स्वामी दयानन्द सरस्वती को सूरत जाना पड़ा था। उस समय 60 सज्जनों ने आर्य समाज के सभासद् बनने की प्रतिज्ञा की थी। तीन माह बाद जब जनवरी 1875 में स्वामी जी वापस मुम्बई आये तो आर्य समाज की स्थापना का प्रस्ताव अधिक उत्साह के साथ उठाया गया। इस बार प्रयत्न सफल हुआ तथा पानाचन्द्र आनन्द को सर्वसम्मति से नियमावली बनाने का कार्यभार सौंपा गया। नियमावली तैयार हो गयी तथा 10 अप्रैल 1875 को गिरगांव में डॉ मानिकचन्द्र की वाटिका में नियम पूर्वक आर्य समाज की स्थापना हो गयी।
उसमें 28 नियम बनाये गये थे। वर्तमान जो दस नियम हैं वे बाद में लाहौर में बने।
आर्य समाज के 10 नियम तथा उद्देश्य -
1. सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदिमूल परमेश्वर हैं।
2. ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, आनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य-पवित्र, और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।
3. वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
4. सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वाद उद्यत रहना चाहिए।
5. सब काम धर्मानुसार, अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।
6. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
7. सबसे प्रीति पूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिए।
8. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
9. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिए, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
10. सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।