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देवार

देवार छत्तीसगढ़ के परम्परागत लोकगाथा गायक हैं।
रायपुरिया देवार की विशेषता है कि ये लोकगाथाओं को सारंगी की संगत पर गाते हैं।
रतनपुरिया देवा की विशेषता है कि ये लोकगाथाओं के ढुंगरू वाद्य के साथ गाते हैं।
इनके पारंपरिक गाथा गीत हैं - चंदा रउताइन, दसमत, सीताराम नायक, नगेपर कैना, गोंडवानी और पंडवानी।
अनेक देवार बंदर के खेल भी दिखाते हैं।

देवार भारत की एक घुमंतु जनजाति है। ये मुख्यतः छत्तीसगढ़ में पाये जाते हैं। ये प्रायः गांवों के बाहर तालाब, नदी या नहर के किनारे अपने अस्थायी निवास बनाते हैं।

आजकल इस समाज में भी लोकगाथा गायकों की संख्या तेजी से घट रही है।

देवार स्त्रियां परम्परागत रुप से गोदना का काम करती रही हैं।

देवार स्वयं को गोंड जनजाति की ही एक उपजाति मानते हैं। उनका मूल स्थान मंडला क्षेत्र है जहां आज भी कई देवार देवी के पुजारी का काम करते हैं। संभवतः देवी की पूजा करने के कारण ही इन्हें देवार कहा गया हो, ऐसा कई विद्वान भी मानते हैं। परन्तु कुछ अन्य दिया बार (दिया जलाने वाले) से देवार शब्द की उत्पत्ति मानते हैं। कहा जाता है कि ये जादू आदि के लिए दिया जलाते हैं।

पश्चिमी विद्वान स्टीफन कुक्स इन्हें भूमियां जनजाति से विकसित एक अलग जातीय समुदाय मानते हैं परन्तु ये स्वयं ऐसा नहीं मानते।

देवारों में अनेक उच्च कोटि के बैद्य भी होते हैं तथा ग्रामवासियों का उपचार करते हैं।

पूर्वी मंडला में भूमियां जाति के लोग गांव के पुजारी होते हैं तथा उन्हें भी देवार कहा जाता है।

गोपाल राय बिंझिया से ये अपना सम्बंध बताते हैं और उनकी लोकगाथा ये बड़े गर्व से गाते हैं।



Page last modified on Wednesday August 14, 2013 11:59:45 GMT-0000