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बोधगया

बोधगया बिहार राज्‍य के गया जिले में स्थित है। बिहार में इसे मंदिरों के शहर के नाम से जाना जाता है। इस गांव के लोगों की किस्‍मत उस दिन बदल गई जिस दिन एक राजकुमार ने सत्‍य की खोज के लिए अपने राजसिहांसन को ठुकरा दिया। बुद्ध के ज्ञान की यह भूमि आज बौद्धों के सबसे बड़े तीर्थस्‍थल के रुप में प्रसिद्ध है। आज विश्‍व के हर धर्म के लोग यहां घूमने आते हैं। पक्षियों की चहचहाट के बीच ‘बुद्धम् शरणम् गच्‍छामि’ की हल्‍की ध्‍वनि अनोखी शांति प्रदान करती है। यहां का सबसे प्रसिद्ध मंदिर महाबोधि मंदिर है। विभिन्‍न धर्म तथा सम्‍प्रदाय के लोग इस मंदिर में आध्‍यात्मिक शांति की तलाश में आते हैं। इस मंदिर को यूनेस्‍को ने 2000 में वल्र्ड हेरिटेज साइट घोषित किया था।

संक्षिप्‍त इतिहास: लगभग 528 ई. पू. के बैसाख यानी अप्रैल-मई महीने में कपिलवस्‍तु के राजकुमार गौतम ने सत्‍य की खोज में घर त्‍याग दिया। गौतम ज्ञान की खोज में निरंजना नदी के तट पर बसे एक छोटे से गांव उरुवेला आ गए। वह इसी गांव में एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्‍यान साधना करने लगे। एक दिन वह ध्‍यान में लीन थे कि गांव की ही एक लड़की सुजाता उनके लिए एक कटोरा खीर तथा शहद लेकर आई। इस भोजन को करने के बाद गौतम पुनः ध्‍यान में लीन हो गए। इसके कुछ दिनों बाद ही उनके अज्ञान का बादल छंट गया और उन्‍हें ज्ञान की प्राप्‍ति हुई। अब वह राजकुमार सिद्धार्थ या तपस्‍वी गौतम नहीं थे बल्कि बुद्ध थे। बुद्ध जिसे सारी दुनिया को ज्ञान प्रदान करना था। ज्ञान प्राप्‍ित के बाद वे अगले सात सप्‍ताह तक उरुवेला के नजदीक ही रहे और चिंतन मनन किया। इसके बाद बुद्ध वाराणसी के निकट सारनाथ गए जहां उन्‍होंने अपने ज्ञान प्राप्ति की घोषणा की। बुद्ध कुछ महीने बाद उरुवेला लौट आए। यहां उनके पांच मित्र अपने अनुयायियों के साथ उनसे मिलने आए और उनसे दीक्षित होने की प्रार्थना की। इन लोगों को दीक्षित करने के बाद बुद्ध राजगीर चले गए। इसके बुद्ध के उरुवेला वापस लौटने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। दूसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व के बाद उरुवेला का नाम इतिहास के पन्‍नों में खो जाता है। इसके बाद यह गांव सम्‍बोधि वैजरसना या महाबोधि आदि नामों से जाना जाने लगा। बोधगया शब्‍द का उल्‍लेख 18 वीं शताब्‍दी से मिलने लगता है।

विश्‍वास किया जाता है कि महाबोधि मंदिर में स्‍थापित बुद्ध की मूर्ति्त का संबंध स्‍वयं बुद्ध से है। कहा जाता है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया जा रहा था तो इसमें बुद्ध की एक मूर्ति स्‍थापित करने का भी निर्णय लिया गया था। लेकिन लंबे समय तक किसी ऐसे शिल्‍पकार को खोजा नहीं जा सका जो बुद्ध की आकर्षक मूर्ति बना सके। सहसा एक दिन एक व्‍यक्‍ति आया और उसे मूर्ति बनाने की इच्‍छा जाहिर की। लेकिन इसके लिए उसने कुछ शर्त्तें भी रखीं। उसकी शर्त थी कि उसे पत्‍थर का एक स्‍तम्‍भ तथा एक लैम्‍प दिया जाए। उसकी एक और शर्त यह भी थी इसके लिए उसे छह महीने का समय दिया जाए तथा समय से पहले कोई मंदिर का दरवाजा न खोले। सभी शर्तें मान ली गई लेकिन व्‍यग्र गांववासियों ने तय समय से चार दिन पहले ही मंदिर के दरवाजे को खोल दिया। मंदिर के अंदर एक बहुत ही सुंदर मू्र्ति थी जिसका हर अंग आकर्षक था सिवाय छाती के। मू्िर्त का छाती वाला भाग अभी पूर्ण रुप से तराशा नहीं गया था। कुछ समय बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर के अंदर रहने लगा। एक बार बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि उन्‍होंने ही मू्िर्त का निर्माण किया था। बुद्ध की यह मूर्ति बौद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त मूर्ति है। नालन्‍दा और विक्रमशिला के मंदिरों में भी इसी मूर्ति की प्रतिकृति को स्‍थापित किया गया है।

सभी भारतीय राज्‍यों में बिहार को महात्‍मा बुद्ध के जीवन से सबसे अधिक गहराई के साथ जोड़ा जाता है, जिसके परिणामस्‍वरूप यहां धार्मिक यात्राएं की जाती है, जो बौद्ध धर्म का जाना माना स्‍थान है। बौद्ध यात्राएं राज्‍य की राजधानी पटना से शुरू होती है, जहां हिन्‍दू और बौद्ध शिलालेखों का एक संग्रह तथा महात्‍मा बुद्ध की अस्थियों के अवशेष मिट्टी के पात्रों में रखे गए हैं।

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