जब कोई चीज नियंत्रण से बाहर होने लगे तो एक आसान तरीका यह भी है कि कहा जाए वह 'ग्लोबल` हो गई है। मंहगाई के बारे में भी ऐसा ही कुछ है। कहा जाता है वह 'ग्लोबल फिनॉमिनन` है। वर्षों पहले यह महसूस किया गया था कि सारी दुनिया अब 'ग्लोबल विलेज` के रूप में सिकुड़ गई है। 'ग्लोब विलेज` होने का मतलब समझ में आता है, पर मंहगाई का 'ग्लोबल` होना अब भी समझ में नहीं आता। दुनिया के 'ग्लोबल विलेज` होने में उसके छोटे होने का अहसास समझ में आता है। पहले जो देश एक-दूसरे से बहुत दूर जान पड़ते थे, अब संचार सुविधाओं के बढऩे से वे एक-दूसरे के नजदीक आते जा रहे हैं। हमें पेरिस, बोन या लंदन की घटनाओं की खबर ऐसे ही मिल जाती हैं जैसे अपने शहर की घटनाओं की खबर मिलती है। इसमें खबरें या घटनाएं ग्लोबल नहीं हुई हैं, हम हुए हैं। और यह भी कि खबरों या घटनाओं का आदमी से रिश्ता और महंगाई का आदमी से रिश्ता एक जैसा नहीं है। अगर दुनियाभर के देशों में महंगाई व्याप्त है, तब भी उसके व्याप्त होने के हर देश में कारण अलग-अलग हो सकते हैं। और कारण अलग-अलग हैं तो महंगाई 'ग्लोबल` कैसे हुई? अंतत: अगर जिस महंगाई का सामना हमें करना पड़ रहा है उसके कारण हमें अपने इर्दगिर्द या अपने ही देश में ढूंढने पड़ें तो 'ग्लोबल` कहकर उन कारणों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।