अतुकान्त
अतुकान्त काव्य का एक भेद है जिसमें छन्दों की संरचना तुकबंद नहीं होती, अर्थात पादों के अन्तिम अक्षर एक से नहीं होते।वैसे तो प्राचीन काल में वैदिक तथा लौकिक संस्कृत काव्यों के छन्दों में भी अतुकान्त छन्द देखे जा सकते हैं परन्तु यह शब्द प्रचलन में तब आया जब तुकान्तयुक्त कविता के बर्चस्व के बाद वैसी कविताओं की रचना होने लगी जो तुकान्तयुक्त नहीं थे। ऐसी कविताओं को तब से अतुकान्त छन्द वाली कविताएं कहा जाने लगा। इस शब्द की रचना तुकान्तयुक्त छन्दों वाली कविताओं को दृष्टि में रखकर ही की गयी, ऐसा कहा जा सकता है।
अंग्रेजी साहित्य में इसे ब्लैंक वर्स के रुप में जाना जाता है।
हिन्दी साहित्य में अतुकान्त कविताओं का प्रचलन विशेष रुप से द्विवेदी युग से प्रारम्भ हुआ। हिन्दी के विख्यात साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने समय में कविता में अतुकान्त छन्दों के प्रयोग का जोरदार पक्ष लिया था। उन्होंने कहा था, “पादान्त में अनुप्रासहीन छन्द भी हिन्दी में लिखे जाने चाहिए। इस प्रकार के छन्द जब संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला में विद्यमान हैं, तब कोई कारण नहीं कि हमारी भाषा में वे न लिखे जायें। संस्कृत ही हिन्दी की माता है। संस्कृत का सारा कविता-साहित्य इस तुकबन्दी के बखेड़े से बहिर्गत सा है। अतएव इस विषय में यदि हम संस्कृत का अनुकरण करें, तो सफलता की पूरी-पूरी आशा है।"
उसके बाद इतनी संख्या में अधिक से अधिक गुणवत्ता वाली अतुकान्त कविताएं लिखी जाने लगीं कि अतुकान्त कविता की एक स्वतंत्र पहचान बन गयी।
प्रारम्भिक उदाहरणों में हरिऔध के प्रियप्रवास को लिया जा सकता है।
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अत्यंत तिरस्कृत वाच्य ध्वनि, अंत्यानुप्रास, अत्युक्ति, अदब, अद्भुत रस