साम, दाम और दंड में फंसा लोकतंत्र
पर लोकराज लोकलाज से चलता है
-
2018-05-24 11:25 UTC
कर्नाटक से निकला संदेश पूरी राजनीति को बदबूदार बना रहा है। राज्यपाल के विवेक का विशेषाधिकार भी मजाक बन गया। सियासत और सत्ता के इस जय पराजय के खेल में कौन जीता और कौन पराजित हुआ, यह राजनीतिक दलों और उनके अधिनायकों के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। लेकिन संवैधानिक संस्थाओं की तंदुरुस्ती के लिए कभी भी सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है। राजनीति के केंद्र में लोकहित कभी भी प्रमुख मसला नहीं होता। वह साम्राज्य विस्तार में अधिक विश्वास रखती है। एकाधिकार शासन प्रणाली में यह बात आम है, लेकिन दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में ऐसा कम होता है लेकिन अब लोकतंत्र की छांव में भी सामंतवाद की बेल पल्लवित हो रही है। सत्ता के केंद्र बिंदु में संविधान नहीं साम, दाम, दंड और भेद की नीति अहम हो चली है। सत्ता के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं को फुटबाल नहीं बनाया जा सकता। लोकतांत्रिक व्यवस्था का हर स्थिति में अनुपालन होना चाहिए।